- क्या सरकार भी चाहती है जनता दबी कुचली रहे,ऊपर ना बढ़ सके इसीलिए उन्हें निकम्मा बनाने पर उतावले हैं राजनीतिक दल?
- विधानसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियां इस समय मतदाताओं को अपनी ओर करने के लिए घोषणाओं की बोली लगा रही हैं।
- इस समय चुनाव जीतने के लिए मुफ्त रेवड़ी देने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई।
- घोषणा पत्र जारी होने के बाद भी नई घोषणा की जारी रही जारी,अपनी ही घोषणा से संतुष्ट नहीं है राजनीतिक पार्टियां,मंचों से नई नई कर रहे हैं घोषणाएं।
- सभी राजनीतिक पार्टियों का मुख्य केंद्र बना हुआ है किसान किसानों को अपने जाल में फांसने की शुरू हो गई है प्रतिस्पर्धा।
- क्या राजनीतिक पार्टियां सरकार बनाने के लिए बिना सोचे समझे घोषणाएं कर रही हैं?
- पहले के चुनाव मूलभूत सुविधाओं पर आधारित होते थे,अब के चुनाव मुफ्त रेवड़ियों पर आधारित है?
- छत्तीसगढ़ में चुनाव के दरम्यान हार का भय सबसे ज्यादा सत्ताधारी दल में नजर आने लगा।
- घोषणा पत्र जारी करके फिर से नई घोषणा जोड़ना बता रहा अंदरूनी उनका आंकलन कहीं न कहीं है कमजोर स्थिति।
- पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धि नहीं बता पा रहा है सत्ताधारी दल,नई योजनाओं की घोषणा ही जीत का माध्यम मानकर चल रहा सत्ताधारी दल।
-रवि सिंह-
बैकुण्ठपुर 13 नवम्बर 2023 (घटती-घटना)। भारत देश को आजाद होने के बाद एक लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए चुनाव प्रक्रिया का चयन किया गया था, यह चुनाव प्रक्रिया कहीं ना कहीं देश को मजबूत बनाने व देश हित के लिए बनाई गई थी पर जैसे-जैसे देश आजादी के बाद आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के दीमक लगने लगे हैं, ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि राजनीतिक दल अपने ताकत या कहे की व्यक्तिगत ताकत पाने के लिए देश को ही मुफ्तखोरी के दलदल में धकेल रहे हैं, गरीबी हटाने में असमर्थ हैं साबित हो चुके राजनीतिक दल, रोजगार दे नहीं सकते रोजगार के लिए प्रेरित कर नहीं सकते सिर्फ कर रहे हैं तो बेरोजगारों को कमजोर कोई भी एक बार का लालच देकर और उनकी ख्वाहिश पूरी करके एक बार मुफ्त में दीजिए और उन्हें कमजोर हुआ दिमाग से अपना बनाइए। इस समय देश या राज्य का भविष्य छोड़कर सरकार में कैसे आए इसकी प्रतिस्पर्धा देखी जा रही है, लोकतंत्र इस प्रतिस्पर्धा में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है कहीं ना कहीं इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत जनता के पास अपनी मजबूत सरकार चुनने का अधिकार तो है पर जनता भी मजबूत सरकार चुने तो चुने कैसे क्योंकि उनके पास तो चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक पार्टियां बिना कुछ किए ही उन्हें रेवड़ी के समान घर बैठे सब कुछ देने को तैयार है, ऐसा कहा जाए तो जैसे एक स्वस्थ आदमी को कोई भी नशा धीरे-धीरे उसका आदि बना देता है ठीक उसी प्रकार इस राजनीति के क्षेत्र में जनता को राजनीतिक पार्टियों का मुफ्त वाला घोषणा उन्हें दबा कुचला बनाने के लिए काफी है, राजनीतिक पार्टियों के दिमाग में यह चीज बहुत तेजी से चल रही है कि देश में एक बहुत बड़ा वर्ग उन्हें मुफ्त के लालच में सत्ता दिला सकता है, यही वजह है कि सत्ता पाने के लिए देश को बेचकर मुफ्त की योजनाएं लागू की जा रही है उसकी भरपाई होती नहीं और राज्य की सरकार केंद्र पर आरोप लगाती है कि देश का जीडीपी गिर रहा है और केंद्र की सरकार है राज्य पर आरोप लगाती है कि भ्रष्टाचार हो रहा है कुल मिलाकर जनता के लिए राजनीति ही फजीहत बनती जा रही है।
छत्तीसगढ़ राज्य में जारी विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान लगातार देखा जा रहा है की सत्ता की चाह रखने वाले राष्ट्रीय राजनीतिक दल हों क्षेत्रीय राजनीतिक दल हों या फिर निर्दलीय प्रत्याशी ही क्यों न हों सभी की घोषणाएं जनता के लिए मुफ्तखोरी जैसी मात्र है, सभी चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे राजनीतिक दल निर्दलीय प्रत्याशी जनता के बीच केवल मुफ्तखोरी की ही योजना लेकर जा रहे हैं देश का विकास अवरूद्ध हो प्रदेश का विकास अवरूद्ध हो साथ ही देश प्रदेश पर कर्ज का बोझ पड़ता है तो पड़े इससे उन्हे कोई फर्क नहीं यह वह साबित कर रहे हैं। प्रदेश में चुनाव मुख्य रूप से देखा जाए तो दो राजनीतिक दलों के बीच ही है यह तय हो चुका है अब तक के रुझानों से। प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही कोई एक सत्ता की कुर्सी तक जाने वाला है यह भी तय माना जा रहा है शेष का प्रदेश में अस्तित्व केवल कुछ मतों का इधर उधर करने तक सीमित है जो किसी एक दल के हार की वजह ही मात्र बनेंगे और इससे ज्यादा कुछ नहीं। प्रदेश में दो प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी घोषणा जारी की और वह चुनाव प्रचार में कूद पड़े,इस बार चुनाव में सबसे ज्यादा परेशान दल सत्ताधारी दल है जिसे सत्ता की कुर्सी बचाने की फिक्र है इसलिए वह फूंक फूंककर कदम रख रही है वहीं भाजपा भी अपने पत्ते सम्हालकर खोल रही है जिससे उसे अधिकतम लाभ चुनाव में मिल सके। कांग्रेस भाजपा की चुनावी लड़ाई में इस बार एक और महत्वपूर्ण चीज देखने को मिली और वह यह थी की भाजपा ने जहां एक ही बार में अपनी घोषणा जिसे उन्होंने मोदी का संकल्प पत्र बताकर जनता के सामने रख दिया जारी कर दिया वहीं कांग्रेस ने क्रम से अपनी घोषणा जारी की और उसने भाजपा की घोषणाओं पर नजर बनाए रखी और जिन घोषणाओं का असर भाजपा के उन्हे ज्यादा मतदाताओं पर पड़ता नजर आया वह उसको लेकर भी सजग हुए और अलग से उसे भी घोषणा में शामिल कर लिया।
सत्ताधारी दल इस चुनाव में बड़ी घबड़ाई नजर आ रही है
कुल मिलाकर सत्ताधारी दल इस चुनाव में बड़ी घबड़ाई नजर आ रही है और वह और भी घोसणा कर सकती है इसकी भी संभावना बताई जा रही है क्योंकि उनका अपना ही आंतरिक सर्वे उन्हे कहीं न कहीं चुनाव में पीछे बता रहा है जिससे वह प्रतिदिन समीक्षा में लगे हुए हैं। सत्ताधारी दल के साथ एक समस्या और खड़ी नजर आ रही है जिससे वह भयभीत है और वह यह की भाजपा लगातार आरोप लगा रही है की पूर्व की ही घोषणाएं सत्ताधारी दल पूरी कर पाने में पांच साल असफल रही और जब वह पिछली ही घोषणाओं को लेकर अभी सवालों में हैं जनता के सामने निरुत्तर हैं ऐसे में उनकी नई घोषणाओं को लेकर जनता कितना विश्वास करेगी यह उसकी चिंता है। सत्ताधारी दल के लिए कर्मचारी भी चिंता का विषय बने हुए हैं जिन्हे लेकर उसने एक भी घोषणा नहीं की है। अब सत्ताधारी दल या विपक्षी दल भाजपा दोनो की बात करें तो दोनो ही मुफ्तखोरी वाली घोषणाओं पर ज्यादा ध्यान देते नजर आ रहे हैं रोजगार सहित राज्य सहित देश की समृद्धि की बात का उल्लेख किसी की घोषणा में नहीं है। सत्ताधारी दल जो पांच साल का कार्यकाल पूरा कर चुनावी मैदान में है वह अपनी योजनाओं का प्रचार नहीं कर पा रही उसके लिए भी मुफ्तखोरी वाली घोषणाएं ही चुनावी जीत का आधार हो सकती है वह मानकर चल रही है जो घोषणापत्र में उसके देखा जा रहा है। अब सत्ता के लिए लोगों को मुफ्तखोर बनाने एक होड़ नजर आ रही है। वैसे भाजपा की बात करें तो वह कर्नाटक चुनाव में देश हित के मुद्दों के साथ चुनाव में थी वहीं कांग्रेस मुफ्त की कई योजनाओं को आगे कर चुनाव में थी, कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस की योजनाओं को जो कहीं न कहीं मुफ्त वाली योजनाएं थीं उसको आधार मानकर मतदान किया कांग्रेस की जीत हुई जिसके बाद से ही भाजपा ने भी रणनीति बदल दी है और वह भी अब मुफ्त की योजनाओं के साथ चुनावी मैदान में है जो देखने को मिल रहा है। अब देखना है बाजी किसके खाते में जाति है।
राजनीतिक दल मुफ्तखोरी की घोषणाओं की लगा रहे बोली,क्षेत्रीय दल साथ ही निर्दलीय प्रत्याशी भी मुफ्तखोरी की घोषणाओं में पीछे नहीं
इस चुनाव में साफ तौर पर देखा जा रहा है की राजनीतिक दल हों क्षेत्रीय दल हों निर्दलीय प्रत्याशी हों सभी मुफ्तखोरी की घोषणाओं के साथ चुनावी मैदान में हैं। जनता को घर में सोए सोए क्या क्या वह दे सकते हैं ऐसी कई योजनाएं इस बार की राजनीतिक दलों की घोषणाएं हैं। मुफ्त अनाज,मुफ्त यात्रा,मुफ्त बिजली, मुफ्त पैसा सब कुछ है घोषणाओं में। राजनीतिक दल हर स्थिति में सत्ता की कुर्सी तक जाना चाहते हैं वह इसलिए मुफ्त की योजनाओं को लेकर जनता के सामने जा रहे हैं।मतदाता किसी भी उनकी तरफ आकर्षित हों यह राजनीतिक दलों की पहली प्राथमिकता बनी हुई है।
मुफ्त की रेवड़ी बांटने की घोषणाओं के बीच देश और प्रदेश हित का किसी ने नहीं रखा है घोषणा पत्र में ध्यान
शिक्षा चिकित्सा किसी देश राज्य की सरकार के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए यह माना जाता है,शेष जनता को रोजगार मिले और वह सक्षम होकर खुद अपनी आजीविका चला सके यह भी सरकारों का काम है,लेकिन इस चुनाव में यह देखने को मिल रहा है की मुफ्त की रेवड़ी बांटने में राजनीतिक दल ज्यादा दे रहें हैं। शिक्षा चिकित्सा की बात तो राजनीतिक दल कर रहे हैं लेकिन इनका नंबर आखिरी है पहले नंबर पर मुफ्त की रेवड़ी वाली घोषणाएं हैं। देश प्रदेश का हित घोषणाओं में कहीं नजर नहीं आ रहा है जो चिंता का विषय है।
किसानों महिलाओं को आकर्षित करने राजनीतिक दलों में देखी जा रही है प्रतिस्पर्धा
इस बार के चुनावी घोषणा में राजनीतिक दलों ने महिलाओं और किसानों पर ज्यादा ध्यान दिया है। सबसे पहले घोषणा पत्र जिसे संकल्प पत्र कहकर भाजपा ने जारी किया जिसमे किसानों को बेहतर समर्थन मूल्य फसलों का वनोपज का साथ ही पिछला बोनस फसल का उन्होंने देने का वादा किया वहीं महिलाओं को 12000 प्रतिवर्ष देने की घोषणा कर उन्होंने महिलाओं को भी अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया वहीं सत्ताधारी दल जिसने भाजपा के घोषणा पत्र का इंतजार किया और किसानों के कर्ज माफी को उसने पहला मुद्दा बनाया साथ ही फसल के समर्थन मूल्य को भी भाजपा से ज्यादा घोषित किया,कांग्रेस ने पहले अपनी घोषणा में महिलाओं को लेकर कोई घोषणा नहीं की लेकिन बाद में उसने भी महिलाओं को लेकर एक घोषणा कर दी ,माना जा रहा है की प्रथम चरण के चुनाव परिणाम विपरीत जा रहे हैं ऐसा भी मानकर यह घोषणा सत्ताधारी दल की मजबूरी बनी है।कुल मिलाकर राजनीतिक दलों में आपसी प्रतिस्पर्धा मची हुई है और कोई भी मुफ्त की रेवड़ी बांटने में पीछे नहीं रहने वाला।
राजनीतिक दल बिना कुछ सोचे समझे कर रहे घोषणा,प्रदेश पर कर्ज का पड़ेगा भार इसको लेकर किसी राजनीतिक दल ने नहीं दिखाई गंभीरता,सत्ता ही मूल उद्देश्य
राजनीतिक दलों की घोषणाएं ऐसी हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है की कोई भी राजनीतिक दल बिना कुछ सोचे समझे घोषणा किए जा रहे हैं। घोषणाओं का क्या असर पड़ेगा देश प्रदेश पर कितना कर्ज बढ़ेगा यह कोई दल नहीं सोच रहा है। मुफ्त खोरी की आदत जनता के लिए कितनी नुकसानदायक साबित होंगी यह भी उनकी चिंता का हिस्सा नहीं है जो देखा माना जा रहा है। मुफ्त ले लो मुफ्त ले लो यही सभी तरफ से संकेत सामने आ रहे हैं।सत्ता की कुर्सी मूल उद्देश्य है राजनीतिक दलों का यही देखने को मिल रहा है घोषणाओं को देखकर।
सत्ताधारी दल अपनी योजनाओं उपलब्धियों की बजाए मुफ्त घोषणाओं के सहारे दिख रहा चुनावी मैदान में
भाजपा सत्ता से बाहर है वह भी मुफ्तखोरी की घोषणा कर रही है क्योंकि कर्नाटक चुनाव परिणाम उन्हे एक सिख दे गई है की लोक लुभावन घोषणा की सत्ता की कुर्सी का माध्यम बन सकती है वहीं सत्ताधारी दल भी लगातार मुफ्तखोरी की ही घोषणा कर रही है अपनी वर्तमान कार्यकाल की उपलब्धि अपनी योजनाओं को छोड़कर वह या तो भाजपा पर प्रहार करती नजर आ रही है आरोप लगाती नजर आ रही है वहीं अपनी योजनाओं और उपलब्धि बताने से कहीं न कहीं कतरा रही है। देखा जाए तो सत्ताधारी दल भी मान चुकी है की जनता का विश्वास उसे मुफ्त की घोषणाओं के सहारे ही मिलने वाला है जिसमे उसे भाजपा से आगे निकलना होगा वरना कुर्सी जाना तय है इसलिए पूरक घोषणाओं का सत्ताधारी दल जुगाड बना रही है। अपनी पुरानी जारी योजनाओं और घोषणाओं के बल पर सत्ता में वापसी होगी ऐसा सत्ताधारी दल नहीं मानकर चल रही है ऐसा भी उसकी पूरक घोषणाओं के बाद माना जा रहा है जो वह स्वीकार करती नजर आ रही है।
मुफ्त शिक्षा मुफ्त चिकित्सा,किसान जैसे मूलभूत विषय देश की आजादी के 75 सालों बाद याद आए राजनीतिक दलों को,यह भी विचारणीय
मूलभूत सुविधा जो शिक्षा और स्वास्थ्य है किसानो का हित है उसको लेकर देश की राजनीति में 75 साल बाद राजनीतिक दलों को ध्यान देते देखा जा रहा है। इसके पहले ऐसी घोषणाएं कभी सुनने को नहीं मिलती थीं,चेहरे पर और परिवारों के नाम पर चुनावों में जीत हार तय होती थी जो देखने को मिल रहा है। अब परिवारवाद और चेहरा देखकर वोट नहीं मिलेगा यह भी राजनीतिक दल स्वीकार करते नजर आ रहे हैं।
कर्मचारी भी होंगे निर्णायक,सत्ताधारी दल से कर्मचारियों की नाराजगी सत्ताधारी दल पर न पड़ जाए भारी
नियमित कर्मचारी हों,अनियमित कर्मचारी हों,संविदा कर्मचारी हों पंचायत के कर्मचारी हों,दैनिक वेतन भोगी हों या अल्प कालीन कोई कर्मचारी वह सभी भी इस बार निर्णायक होंगे चुनाव में राजनीतिक दलों के लिए। सत्ताधारी दल से कर्मचारी प्रदेश के नाराज हैं वहीं देखा जाए तो सत्ताधारी दल ने कर्मचारियों के लिए कोई नई घोषणा भी नहीं की है वहीं पिछली पूरी भी नहीं की है ऐसे में माना जा रहा है की कहीं सत्ताधारी दल को कर्मचारियों की नाराजगी भारी न पड़ जाए।
जनता आश्रित बनी रहे,अनुदान के सहारे वह जीवन काटते रहें,बेरोजगार बेरोजगारी भत्ता से खुश रहें नेता मलाई खाते रहें यही है राजनीतिक दलों की घोषणा पत्र का असली उद्देश्य
राजनीतिक दलों की घोषणाओं को यदि समझा जाए तो स्पष्ट है की वह चाहते हैं की जनता अलाल बनी रही,राशन दुकानों में लाइन लगाकर राशन ले,अन्य सामान मुफ्त में ले,कामधाम न करे,बेरोजगार केवल लाइन लगाकर बेरोजगारी भत्ता लेते रहें और नेता मलाई खाते रहें। राजनीतिक दलों को सत्ता की कुर्सी मिल जाए बाकी जनता जीवन भर अलाल बनी रहे यही राजनीतिक दलों की मंशा नजर आ रही है।