अंबिकापुर,@सरगुजा के लोक वाद्यों में शेर जैसे जंगली जानवरों को रिझाने और भगाने की होती थी क्षमता

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अजय चतुर्वेदी ने राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में 70 लोक वाद्यों को किया प्रस्तुत

अंबिकापुर,26 सितम्बर 2023 (घटती-घटना)। संचालनालय पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय संस्कृति विभाग रायपुर द्वारा तीन दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि संस्कृति मंत्री माननीय अमरजीत भगत थे। पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय के क्षेत्र में नवीन शोध विषय पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में राज्य योजना आयोग, छाीसगढ़ पुरातत्व कार्य समूह के सदस्य अजय कुमार चतुर्वेदी ने संग्रहालय का आकर्षण छाीसगढ़ के पुरातन लोक वाद्या (सरगुजांचल के विशेष संदर्भ में) को प्रस्तुत कर सरगुजा अंचल के लोक वाद्यों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाया।
सरगुजा के बाजे की आवाज में शेर को रिझाते और भगाने की क्षमता होती थी।
22 से 24 सितंबर तक आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता अजय चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल के विलुप्त हाते लोक वाद्यों पर प्रस्तुति देते हुए बताया कि यहां की लोक वाद्यों में शेर को रिझाने और भागाने की क्षमता होती थी। प्राचीन काल में सामन्तों और राजाओं का राज्य था। तब राजा शिकार करने के बेहद शौकीन होते थे। वे ग्रामीणों के साथ विभिन्न बाजों से लैस होकर जंगल की ओर शिकार पर जाया करते थे। माना जाता है इसी समय शिकारी बाजे का आविष्कार हुआ। इस बाजे में शेर जैसे जंगली जानवरों को ललचाने की क्षमता होती थी। इस बाजे की आवाज़ सुनकर शेर, चीता जैसे जानवर रिझकर कऱीब आ जाया करते थे। शिकारी बाजा के साथ ग्रामीण जंगलों में हांका करने जाते थे। हांका करते समय वे झुमका खेलते थे। इसीलिए इस बाजे को झुनका बाजा भी कहते हैं।
इसी तरह शेर को भागाने वाला अनोखा लोक वाद्य घुमरा है। यह केंवट जाति का पारम्परिक लोक-वाद्य है। जंगली जानवरों को भगाने के लिए ग्रामवासियों ने घुमरा नामक वाद्य का आविष्कार किया। घुमरा बाजे से बाघ के गरजने जैसी आवाज़ निकलती है। पहले इसे बजाकर शेर जैसे जंगली जानवरों को भगाया जाता था। यह दुर्लभ वाद्य घड़ा, चमड़ा और मोर पंख के डंठल से बनता है। सरगुजा अंचल में इसका उपयोग प्राचीन काल में खूब होता था।
लोक वाद्यों के संरक्षण के लिए संग्रहालय आवश्यक है
वर्तमान परिवेश में इस ओर ज्यादा ध्यान न देने के कारण और आधुनिकता की आड़ में अब धीरे-धीरे हमारी लोक संस्कृति, लोक परंपराएं नष्ट होती जा रही है। छाीसगढ़ राज्य के बस्तर और सरगुजा आदिवासी बहुल अंचल में पहले लोक वाद्यों की बहुलता थी। संरक्षण के अभाव में लोक वाद्य विलुप्त होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में अजय चतुर्वेदी ने मांग करते हुए कहा कि लोक संस्कृति को बचाने के लिए इस बात की नितांत आवश्यकता है कि एक ऐसा संग्रहालय विकसित किया जाए जिसमें विलुप्त होते लोक संस्कृति की निषानियों और लोक वाद्यों को संजो कर रखी जा सके।
सरगुजा नामकरण
का पुरातन लोक वाद्य
सरगुजा अंचल से विलुप्त होते प्राचीन लोक वाद्यों पर खोजकर्ता राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता अजय कुमार चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल से लगभग अभी तक 70 लोक वाद्यों की खोज कर उनकी आवाजों को पुनर्जीवित कर सुरक्षित किया है। इनके वाद्य यंत्रों पर आधारित 14 कडिय़ों में आकाशवाणी अुबिकापुर से धारावाहिक रूपक भी प्रसारित हो चुका है। आज इन लोक वाद्यों की आवाज मानों रूंधे हुए स्वर में यही कह रही हैं कि हमें सुरक्षा और पुनर्जीवन चाहिए। क्योंकि हम कोई और नहीं, सरगुजा अंचल के वही पारंपरिक वाद्य हैं, जिनकी पहचान आज भी अंचल के नाम के साथ जुड़ी है। सुरों से गुंजित होने वाला हमारा सरगुजा।


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