बैकुण्ठपुर@क्या भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से राजस्व विभागके न्यायालय से लोगों का भरोसा उठने लगा…?

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  • क्या पैसे के दम पर कुछ भी फैसला देने ही राजस्व न्यायालय की प्रथा?
  • राजस्व न्यायालय पर भू-माफियाओं का दबदबा,आम लोग हो रहे प्रताडि़त
  • आजादी व संविधान से पहले जमीन हुई सामान्य वर्ग की अब उसके ऊपर दवा पाी हुई शुरू
  • राजस्व न्यायालय नियम विरुद्ध सुनाया फैसला,पीडि़त को नहीं दी अगली अदालत में जाने का मौका
  • विक्रेता ने रास्ता कहकर छोड़ी भूमि, लालच में आकर उसे दिया बेच,आपçा होने के बाद भी तहसीलदार ने दिया नामांतरण करने का आदेश
  • एक ही राजस्व न्यायालय ने एक ही जमीन संबंधित मामले में दो अलग-अलग फैसला, क्या चल रहा राजस्व न्यायलय में?
  • हाईकोर्ट के फैसला के अनुसार भू-राजस्व संहिता की धारा 170 ख 2 अक्टूबर 1959 से पहले जमीन की खरीदी बिक्री पर नहीं होगी लागू

रवि सिंह-
बैकुण्ठपुर 03 अप्रैल 2023 (घटती-घटना)। जमीन संबंधित मामलों के लिए राजस्व विभाग व न्यायालय बनाया गया है ताकि जमीन संबंधित मामलों का निपटारा इसी विभाग व न्यायालय द्वारा हो सके पर पिछले कई सालों से राजस्व विभाग के न्यायालय के कार्य प्रणाली से लोगों का भरोसा उठता दिख रहा है। जिसकी वजह सिर्फ अधिकारियों की मनमानी है, यहां पर सर्वोच्च पद पर बैठे अधिकारी किस कदर मनमानी करते हैं इस बात का अंदाजा कोरिया जिले के राजस्व विभाग की कार्यप्रणाली से लगाया जा सकता है, यहां पर तर्क-वितर्क व दस्तावेज कम, सेटिंग ज्यादा चलती है। यह न्यायालय भू-माफिया के लिए तो अच्छा है पर भू-स्वामियों के लिए मुसीबत का सबब बना हुआ है, राजस्व न्यायालय के फैसले को देख देख कर तो लोग अपना सर पकड़े बैठे हैं, स्थिति यह है कि वकालत करने वाले भी इस न्यायालय का केस लड़ने से डरने लगे हैं, कहा तो यह जाने लगा है कि यदि सुप्रीम कोर्ट के विद्वान अधिवक्ता भी यदि राजस्व न्यायालय का केस लड़ेंगे तो वह भी हार जाएंगे वह भी सुबुत व गवाह होने के बावजूद क्योंकि यहां पर तथ्य व फैसले कागजों पर नहीं बल्कि सेटिंग पर ही हो जाते है और जिम्मेदार भी डंके की चोट में फैसला करते है और कहते भी है की असंतुस्ट है तो अगली अदालत में अपील कर सकते है यह सिर्फ इसलिए की उन्हें भय नहीं की गलत फैसला करेंगे तो उन्हें कोई सजा मिलेगी।
कुछ ऐसा ही मामला कोरिया जिले पटना क्षेत्र का है जहां पर 170 (ख) के मामले में बहुत बड़ी त्रुटि देखी गई है यह मामला एसडीएम न्यायालय में एक नहीं दो बार लगा पहली बार 2012 में जब एसडीएम ने मौजूदा भू-स्वामी के हक में फैसला सुनाया उसके बाद फिर 10 साल बाद इसी न्यायालय में अधिकारी बदले और दोबारा वह केस लगा और इस बार फैसला बदल गया, यह फैसला इस बार आवेदक के पक्ष में आ गया, अनावेदक को पता ही नहीं चला, इस मामले में एक आश्चर्यचकित करने वाले पहलू यह है की 170 (ख) पर छत्तीसगढ़ माननीय उच्च न्यायालय ने भी 4 साल पहले एक फैसला सुनाया था जिसमें उन्होंने कहा था कि 2 अक्टूबर 1959 से पहले खरीदी बिक्री पर लागू नहीं होगा 170 (ख) पर इसके बावजूद एसडीएम ने इस पर उच्च न्यायालय के आदेशो की भी अवेलना कर दी और फैसला सुना दिया, आश्चर्य की बात तो तब हो गई जब एसडीएम के आदेश को कलेक्टर ने भी यथावत रख दिया अब सवाल यह उठता है कि क्या कलेक्टर ने भी सारे दस्तावेजों को अच्छे से नहीं देखा या फिर किसी के प्रभाव में फैसला कर दिया? जानकारी के अनुसार अनुविभागीय अधिकारी राजस्व कोरिया ने एक ही प्रकरण में दो अलग-अलग अधिकारियों ने अलग-अलग निर्णय दिया गया जो समझ के परे है। अनुविभागीय अधिकारी एक ही प्रकरण में एक बार खारिज करते हैं और सुनवाई के क्षेत्राधिकार न होते हुए भी पुनः उसी प्रकरण पर दूसरी बार विरुद्ध निर्णय देते हैं ये कैसा न्याय है?
राजस्व विभाग में अनावेदक को क्यों नहीं दी जाती है जानकारी और हो जाता है फैसला?
कोरिया के राजस्व विभाग में प्रकरण तो दर्ज होते हैं पर कई प्रकरणों में जिसके खिलाफ फैसला सुनाना होता है उन्हें अपना जवाब प्रस्तुत करने का मौका भी नहीं दिया जाता यह एक बड़ा सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों नहीं किया जाता कई ऐसे मामले उदाहरण के तौर पर कोरिया जिले में आपको देखने और सुनने को मिल जाएंगे, जिसमें से एक मामला पटना में 170 (ख) का है इस प्रकरण में देखने को मिला जहां अनावेदक का पटना स्थित भूमि खसरा नम्बर 159/7 वर्तमान स्वामित्व के पूर्वजों ने कलेक्टर की अनुमति पश्चात क्रय किया था 2005-06 में अनुविभागीय अधिकारी के आदेश में यह उल्लेखित किया गया कि इस पर 159(ख) लागू नहीं होता अतः प्रकरण खारिज किया जाता है और इस तथ्य को छिपाते हुए पुनः 2022 में विरुद्ध निर्णय एसडीएम द्वारा अनावेदक के बयान लिये बिना दे दिया जाता है। अपील पश्चात माननीय कलेक्टर भी अपने पारित आदेश में अनुविभागीय अधिकारी के आदेश को यथावत रखे जाने का आदेश जारी कर देते हैं। जबकि स्वयं कलेक्टर महोदय को दिखाए गये सभी साक्ष्यों पर संतुष्ट थे। आखिर इतनी हड़बड़ी में बिना वास्तविक स्थिति को जाने किसके प्रभाव में येसे फैसले होते है?
आपत्ती दर्ज कराने का भी नहीं मिलता मौका
कई पीडि़तों का कहना है कि आपत्ती दर्ज करने का भी मौका तहसील या एसडीएम कार्यालय में नहीं दिया जाता, जबकि 45 दिन तक की अवधि निर्धारित की गई है कि अनावेदक अपनी सुनवाई के लिए इस पर आपत्ती दर्ज कर सके पर विभाग की ऐसी मनमानी है कि 45 दिन तक कोई जानकारी ही नहीं मिलती और 45 दिन के बाद जानकारी पहुंचती है तब तक काफी देर हो गया होता है आखिर येसी मनमानी का आरोप राजस्व में क्यों लगती है? जिम्मेदार द्वारा क्यों मनमानी की जाती है? यह एक बड़ा सवाल है आखिर इस पर रोक कब लगेगा। इस बात की चिंता लोगों को सता रहे हैं लोग बेवजह परेशान हो रहे हैं और परेशानी का अंत सिर्फ पैसा ही है क्या? प्रदेश सरकार के प्रशानिक व्वस्था पर भी सवलिया निशान है।
भूमि बेचने वाले ने खरीदने वाले को रास्ता देने के बाद की रजिस्ट्री अब रास्ता वाला जमीन को ही दूसरे को दिया बेच
संतोषी बघेल पति संजय बघेल पटना निवासी ने बताया कि 2008 में पंजीकृत विक्रय पत्र के माध्यम से भूमि खरीदा था जिसका खसरा नंबर 732/1/घ/7 है भूमि खरीदते समय दक्षिण तथा पश्चिम दिशा में उनके द्वारा उपयोग किए जाने के लिए रास्ता दिया जाना बताया गया था, जिसका उल्लेख रजिस्ट्री में भी किया था फिर बाद में रास्ते के लिए छोड़ी हुई भूमि को ही माया सोनी पति संजय सोनी को बेच दिया गया, जिसका नामांतरण भी तहसील कार्यालय द्वारा कर दिया गया, जबकि मैंने इसके लिए आपçा लगाई थी इसके बावजूद पटना नायाब तहसीलदार द्वारा नामांतरण कर दिया गया। जबकि मैंने तहसीलदार कार्यालय में जाकर आपत्ती सारे दस्तावेजों के साथ लगाई थी पर इसके बावजूद नामांतरण करना समझ के परे।
4 साल पहले आया था हाईकोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट ने कहा है कि छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता की धारा 170 यानी आदिवासी की जमीन होने पर किसी अन्य को बेचने से पहले कलेक्टर से अनुमति लेने का नियम 2 अक्टूबर 1959 से हुए खरीदी-बिक्री पर लागू नहीं होगा। हाईकोर्ट ने दोनों मामलों में निचली अदालत के फैसले को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने बिक्री को निरस्त करते हुए पक्षकारों को जमीन लौटाने का आदेश दिया था। मामला अविभाजित मध्यप्रदेश के तहत सरगुजा जिले के कुसमी में स्थित 0.70 एकड़ जमीन का था, 2 अक्टूबर 1959 से पहले ठेकी पिता सुना के नाम पर दर्ज थी। ये लोग अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल नहीं थे। ठेकी से यह जमीन पुसा किसान और घसिया किसान ने खरीद ली। ये दोनों भी अनुसूचित जनजाति वर्ग से नहीं थे, इस वजह से इन्हें किसी अन्य को जमीन बेचने के लिए छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता की धारा 165 (6) व 170 ख के तहत कलेक्टर से अनुमति लेने की जरूरत नहीं थी। ठेकी की मौत के बाद जमीन उसके बच्चों सरस्वती और जानकी के नाम पर दर्ज हो गई। दोनों ने 21 फरवरी 1976 को अपने हिस्से की कुछ जमीन मो. मुस्तफा को बेच दी। बाकी हिस्सा 1991 में हीरामनि को बेच दी गई। जमीन खरीदने के बाद यहां मकान का निर्माण करा लिया गया। बाकी हिस्से पर खेती होने लगी। इधर, एसडीओ ने राजस्व मामला दर्ज करते हुए दोनों के नाम पर जमीन की बिक्री शून्य घोषित करते हुए पक्षकारों को लौटाने के निर्देश दिए। मो. मुस्तफा और हीरामनि ने कोर्ट में मामला प्रस्तुत किया। अंबिकापुर के एडीजे की कोर्ट ने 1998 को मामला खारिज कर दिया था, इसके बाद दोनों ने एडवोकेट बीपी गुप्ता के जरिए हाईकोर्ट में फर्स्ट अपील प्रस्तुत की थी। मामले पर जस्टिस गौतम भादुरी की बेंच में सुनवाई हुई। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए अपील मंजूर कर ली है कि 2 अक्टूबर 1959 से पहले हुई जमीन की खरीदी-बिक्री पर छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता की धारा 170 लागू नहीं होगा। हाईकोर्ट ने दोनों मामलों में निचली अदालत के फैसलों को निरस्त कर दिया है।


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