- विधानसभा चुनाव की तैयारी में लगा भाजपा संगठन,नए चेहरों के साथ सत्ता में वापसी की तैयारी
- गुजरात चुनाव में अपनाए गए फार्मूले को लागू करने की बढी मांग क्या मिलेगी सफलता?
- पिछले चुनाव में पुराने चेहरो से चिढी जनता ने सत्ता से किया था दूर, क्या आदिवासी चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ेगी भाजपा?
-रवि सिंह –
बैकुण्ठपुर 16 दिसम्बर 2022 (घटती-घटना)। छत्तीसगढ़ में अगले वर्ष संभावित विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट अब धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है, प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस जहां एक बार फिर अपनी वापसी के लिए आष्वस्त है तो वहीं विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी ने भी फिर से सत्ता पाने के लिए अपनी रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। चुनाव को लगभग एक साल का वक्त है लेकिन आचार संहिता और पहले लग जाएगा उसके ठीक पहले मानसून का महीना। कुल मिलाकर कहा जाए तो अब चुनाव के लिए तैयारी के लिहाज से मात्र छः से सात महीने का वक्त ही बचा है। इसी में सरकार भी अपना पूरा दमखम लगाएगी तो वहीं विपक्ष भी सत्ता पर हमलावर होगा। साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस को अप्रत्याषित परिणाम मिले थे जो कि शायद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भी कभी नही सोचा रहा होगा, तो वहीं परिणाम के बाद भाजपाई रणनीतिकारों के पैर के नीचे से जमीन खिसकने वाली स्थिति निर्मित हो गई थी। अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव के करीब आते ही संगठनात्मक तौर पर तैयारी शुरू कर दी गई है।
छत्तीसगढ़ भाजपा में दिखेगा बदलाव,नए को मिलेगा मौका
पंद्रह वर्ष के शासनकाल में भाजपा ने प्रदेष का विकास तो किया लेकिन सत्ता के नशे में चूर भाजपा के बड़े नेताओं ने संघ से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं की पूछ परख एकदम बंद कर दी थी हालात यह था कि भाजपा नेताओं, विधायको मंत्रियों के यहां भाजपाई कम कांग्रेसी ज्यादा दिखाई देने लगे थे। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के काम आसानी से हो जाया करते थे, भाजपा कार्यकर्ता सब कुछ होते हुए भी निराष हो चुके थे। कुल मिलाकर कार्यकर्ताओं की पूछ परख खत्म हो गई थी, सत्ता के ईशारे पर संगठन का संचालन होता था, पार्टी कई गुटो में बंट चुकी थी। विधायक व मंत्रियो से कार्यकर्ता और जनता भी रूष्ट थी, समय की मांग थी कि कई पुराने चेहरो को टिकट न दिया जाए लेकिन उस दौरान तात्कालिक मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ही सबसे ज्यादा प्रभावषील थे तो उन्होने सभी सर्वे रिपोर्ट व पार्टी के नियम कायदो को किनारे कर दिया जिसके बाद लगभग सभी सीटो पर अपने हिसाब से प्रत्याशी उतारा, ऐसे प्रत्याषियो को मौका दिया गया जिनसे कि जनता से लेकर कार्यकर्ता त्रस्त थे जिसका खामियाजा भाजपा को सत्ता खोकर भुगतना पड़ा। यहां यह उल्लेखनीय है कि कुछ इसी तरह का नजारा बैकुंठपुर क्षेत्र में भी जनता व कार्यकर्ताओ को देखना पड़ता था, कांग्रेस में काम करने वाले लोग मंत्री के साथ हेलीकाप्टर में घूमते थे और भाजपाई नीचे से हाथ हिलाते रह जाते थे। जिसका असर विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। चुनाव के परिणाम के बाद भाजपाई रणनीतिकारो ने जो विष्लेषण किया उसमें यही बात सामने आई कि पुराने चेहरो को टिकट नही दिया जाना चाहिए था, लेकिन इस प्रमुख बात को नजरअंदाज किया गया जिससे विपक्ष में बैठना पड़ा। वही स्थिति अब भी बनी हुई है बताया जाता है कि क्षेत्रीय संगठन मंत्री अजय जामवाल ने भी जब जिलो का दौरा किया तो यह बात सामने आई कि नाराजगी पार्टी से नही बल्कि पुराने चेहरो से थी, यदि उस दौरान पुराने चेहरो को बदल दिया गया होता तो पार्टी सत्ता में आती या न आती लेकिन इतना बुरा हश्र नही हुआ होता। अब चुकि पार्टी पूरी तरह से चुनावी मोड पर आ गई है प्रदेष में नए प्रभारी से लेकर अन्य बड़े नेताओ का आना जाना भी शुरू हो गया है, जाहिर सी बात है कि पार्टी पिछले चुनाव की तरह इस बार गलती नही करेगी। संगठन सूत्रो के मुताबिक पार्टी इस बार 90 प्रतिशत नए चेहरो को मौका देगी। प्रदेष प्रभारी ओम माथुर ने भी इसका संकेत दे दिया है कि पिछले चुनाव मे हारे व अधिक उम्र के नेताओ को इस बार पार्टी टिकट देने के मुड मे नही है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी यह अच्छे से जानता है कि यदि प्रदेश में सरकार बनानी है तो फिर नए चेहरो को ही मौका दिया जाना चाहिए।
गुजरात फार्मूला लागू करने का दबाव
हाल ही में गुजरात में विधानसभा का चुनाव संपन्न हुआ है, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री का गृह राज्य होने के साथ ही यहां पर सत्ताऔर मजबूत पकड़ के बावजूद भाजपा ने नए फार्मूले पर चुनाव लड़ा, अधिकांष नए चेहरो को मौका दिया गया, और उन्हे सफलता भी मिली है। गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम भी खुद भाजपा के लिए अप्रत्याषित रहा जिसके बाद पार्टी में यह दबाव बढ गया है कि वह छत्तीसगढ समेत अन्य राज्यो में आगामी वर्ष होने जा रहे चुनाव में गुजरात फार्मूले पर ही लड़ाई लड़े। यदि ऐसा होता है तो छत्तीसगढ भाजपा में अब सिर्फ नए चेहरे देखने को मिलेंगे।
क्या खत्म हो गई
डॉ. रमन सिंह की पारी?
प्रदेष में भाजपा ने लगातार तीन कार्यकाल तक राज किया, मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. रमन सिंह भी सर्वमान्य चेहरा रहे हैं। पिछला चुनाव भी उन्ही के चेहरे पर लड़ा गया था जिसके बाद भाजपा की इतनी दुर्गती होगी किसी ने सपने में भी नही सोचा नही था। इस परिणाम के बाद केन्द्रीय स्तर पर भी डॉ. रमन सिंह काफी कमजोर हुए। अब प्रदेष में भी वे अलग-थलग दिखलाई देने लगे है। संगठन के कार्यक्रम में भी उन्हे खास तवज्जो उतनी नही मिलती जितनी मिलनी चाहिए। पार्टी का एक बड़ा वर्ग भी भीतर ही भीतर अब पूर्व मुख्यमंत्री का प्रबल विरोधी हो गया है। एसे में कयास लगाया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव पार्टी कम से कम डॉ. रमन सिंह के चेहरे पर तो नही लड़ेगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रदेश में कई दावेदार ऐसे है कि जो सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री तक ही पहुंच रखते हैं, संघ समेत भाजपा संगठन से उनकी दूरी इतनी है कि वह कभी खत्म हो नही सकती है। अगर केन्द्रीय नेतृत्व वास्तव में डॉ. रमन सिंह को किनारे कर चुनाव में उतरता है तो फिर उन पर आश्रित कई चेहरे भी किनारे कर दिए जाएंगे इससे इंकार नही किया जा सकता है।
आदिवासी चेहरा के रूप में रामविचार को आगे कर सकती है पार्टी
प्रदेश में चुनावी तैयारी जैसे शुरू हुई है ठीक उसी प्रकार मुख्यमंत्री चेहरे पर भी बात होना लाजमी है। प्रदेश में आदिवासी समुदाय एक बहुत बड़ी संख्या में है, खासकर सरगुजा और बस्तर संभाग से जीत के बाद यही समुदाय सत्ता तक पहुंचाता है। पिछले बार के चुनाव में बस्तर और सरगुजा संभाग से भारतीय जनता पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा है। आदिवासी समुदाय ने भाजपा का साथ एकदम नही दिया था। अब फिर से इस समुदाय को साधने के लिए कयास लगाया जा रहा है कि भाजपा इस बार आदिवासी चेहरे को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर सकती है, और इसके लिए यदि तेज तर्रार आदिवासी नेता,पूर्व मंत्री,पूर्व राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम का नाम यदि सामने आता है तो कोई अतिष्योक्ति नही होनी चाहिए। श्री नेताम की कार्यषैली एक तेज तर्रार नेता के रूप में जानी पहचानी जाती है, वे अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व भी निभा चुका है, केन्द्रीय स्तर पर भी उन्हे पहचान बनाने की जरूरत नही है। उन्हे मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने पर आदिवासी समुदाय स्वभाविक रूप से भाजपा की ओर आकर्षित होगा। सरगुजा के साथ ही बस्तर में इसका प्रभाव पड़ना लाजमी है। हलांकि पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय भी एक प्रबल दावेदार हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि दो दिन पूर्व दुर्ग जिले में आयोजित भाजपा के कार्यक्रम में पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर ने भी ईषारे ही ईषारे में यह कहकर इस बात को बल दे दिया है कि रामविचार नेताम ही 11 महीने बाद मुख्यमंत्री होंगे।
ओबिसी कार्ड पर प्रदेश अध्यक्ष अरूण साव संघ की पसंद
आदिवासी नेतृत्व के साथ ही भाजपा में ओबीसी फेक्टर भी देखा जा सकता है, प्रदेश के मुख्यमंत्री ओबीसी वर्ग से है, प्रदेष में ओबीसी वर्ग भी बड़ी संख्या में है जो कि चुनाव में बहुत प्रभाव रखता है। भाजपा ने कुछ समय पहले विष्णुदेव देव साय को हटाकर बिलासपुर सांसद और ओबीसी वर्ग से आने वाले अरूण साव को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर एक राजनैतिक चाल चल दिया है। श्री साव साहू समाज से आते हैं वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं तथा संघ की भी पसंद हैं। यदि भाजपा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के ओबीसी कार्ड पर फोकस करते हुए अरूण साव को मुख्यमंत्री के तौर पर पेष करती है तो यह कदम भी भाजपा के लिए सकारात्मक हो सकता है। हलांकि युवा चेहरे के रूप में पूर्व आईएएस ओपी चैधरी भी इस लाईन में हैं।
अविभाजित कोरिया में तीनो उम्मीदवार बदले जाने की चर्चा
प्रदेश में चुनाव की सुगबुगाहट के बीच अविभाजित कोरिया की तीनो सीटो में यह चर्चा आम हो गई है कि पिछले बार भारतीय जनता पार्टी ने तात्कालिक विधायको को ही फिर से मौका दिया था, तीनो ही विधायको से जनता और कार्यकर्ता भी रूष्ट थे, जिसके बाद तीनो सीट पर हार का सामना करना पड़ा। अब एक बार फिर पुराने उम्मीदवार टिकट को लेकर आषान्वित तो हैं लेकिन संगठन सूत्रो के मुताबिक पिछले चुनाव में हारे हुए तीनो उम्मीदवारो को इस बार संगठन मौका देने के मुड में नही है। इसी जनचर्चा के बीच तीनो ही विधानसभा सीट पर टिकट की चाह रखने वाले दावेदार भी अभी से क्षेत्र में सक्रिय हो गए हैं। हलांकि यह सारे सवाल अभी भविष्य के गर्त में है आने वाले समय में क्या समीकरण बैठेगा कुछ कहा नही जा सकता लेकिन वर्तमान स्थिति देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि केन्द्रीय नेतृत्व छत्तीसगढ में सरकार बनाने को लेकर कुछ ज्यादा ही गंभीर है और आंतरिक सर्वे से लेकर संगठनात्मक ढांचा मजबूत करने की दिषा में तेजी से काम चल रहा है। बतलाया जाता है कि इस बार का विधानसभा चुनाव सीधे भाजपा के चुनावी मैनेजमेंट गुरू और देश के गृहमंत्री अमित शाह के दिशा निर्देशन में लड़ा जाएगा, जाहिरी सी बात है श्री शाह राजनीति के माहिर खिलाड़ी है और उनके द्वारा अगर छत्तीसगढ पर फोकस किया जाता है तो फिर कांग्रेस को सत्ता वापसी में काफी कठिनाईयो का सामना कर पड़ सकता है।