नई दिल्ली ,04 नवम्बर २०२२। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब न्यायेतर कबूलनामे की पुष्टि किसी और विश्वसनीय सबूत से नहीं होती है, तब सिर्फ कमजोर सबूतों के आधार दोषसिद्धि नहीं हो सकती। प्रधान न्यायाधीश यू.यू. ललित और न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने मामले में अभियोजन पक्ष के गवाहों में से एक को संबोधित पत्र के माध्यम से एक आरोपी द्वारा किए गए अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति पर बहुत अधिक भरोसा किया था। पीठ ने कहा, इस तथ्य के अलावा कि अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति साक्ष्य का एक बहुत ही कमजोर टुकड़ा है, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस आधार पर उस पर भरोसा करने से इनकार कर दिया था कि न तो हस्तलेख विशेषज्ञ की जांच की गई थी और न ही अभियोजन पक्ष ने हस्तलेख विशेषज्ञ से पुष्टि कराई थी। शीर्ष अदालत ने 2016 में पारित मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया, जिसने निचली अदालत के फैसले को एक हत्या के मामले में पांच लोगों को दोषी ठहराने और आजीवन कारावास की सजा देने की पुष्टि की।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मौजूदा मामले में अभियोजन पक्ष ने कथित तौर पर अभियोजन पक्ष के गवाह को संबोधित अंतर्देशीय पत्र में निहित एक आरोपी की लिखावट को साबित करने के लिए हस्तलेख विशेषज्ञ की जांच नहीं की और न ही किसी विशेषज्ञ की राय ली गई। पीठ ने कहा कि उसकी राय में उच्च न्यायालय ने आरोपी द्वारा कथित अतिरिक्त न्यायिक कबूलनामे के संबंध में उन सबूतों को खारिज कर दिया था।
शीर्ष अदालत ने कहा, एक अनूठा निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि आरोपी कथित अपराधों के दोषी हैं, केवल इसलिए कि वे यह बताने में विफल रहे कि पीडि़त की मौत किन परिस्थितियों में हुई। पीठ ने कहा कि चूंकि सुपर-इम्पोजिशन रिपोर्ट, डीएनए रिपोर्ट या पोस्टमार्टम रिपोर्ट जैसे किसी अन्य विश्वसनीय चिकित्सा साक्ष्य द्वारा पुष्टि नहीं कराई गई थी,
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