आखिर राजनीतिक लड़ाई में कब तक जलती रहेगी देश की संपत्ति?

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  • लोकतंत्र-राजनीतिक विद्वेषऔर जलता देश, आखिर विरोध में किस की संपत्ति जली बीजेपी की या कांग्रेस की?
  • विरोध के दौरान देश की संपत्ति अन्य लोगों की संपत्ति को जलाना कहा तक उचित है?
  • क्या देश की संपत्ति जलाने से विरोध प्रकट होगा क्या विरोध करना संपत्ति जलाना है?
  • उनका क्या कसूर जिन्होंने बड़ी मेहनत से अपनी गाड़ी खरीदी थी जिसे विरोधियों ने फूंक दिया उनके तकलीफ का क्या?
  • सरकार के किसी निर्णय के विरोध में सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना जलाना कहां तक उचित।
  • कहीं सार्वजनिक संपत्तियां जलाई गईं कहीं लोगों को व्यक्तिगत संपत्ति का भी हुआ नुकसान।
  • विरोध प्रदर्शन के नाम पर चलता रहा नुकसान पहुंचाने का खेल, आखिर कौन है जिम्मेदार?

लेख रवि सिंह कटकोना। भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा और अखंड है। भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती इसमें असहमति, प्रदर्शन, विरोध के अधिकार और इसके तौर-तरीकों से है। आजादी के साथ ही लोकतंत्र की स्थापना के समय से ही असहमति का भारतीय लोकतंत्र में विशेष स्थान रहा है यही कारण है कि नेहरू सरकार में उनके विपरीत विचाराधारा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी, फिरोज जहांगीर खान, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर मंत्रिमंडल में शामिल रहे। जो सरकार के गलत निर्णय पर निर्भयात्मक प्रतिक्रिया देने के बावजूद अपना अलग वजूद बनाए रखे। यह परिपाटी बाजपेयी सरकार तक लगातार देखने को मिली। इस दौरान सरकार के सही-गलत निर्णय पर देश के विभिन्न वर्ग यथा किसान, नौजवान इत्यादि की सहमति- असहमति भी देखने को मिली। अनेकों प्रकार के आंदोलन,  प्रदर्शन, धरना भी हुए, पर कभी देश नहीं जला। आंदोलनकारियों ने देश में आग नहीं लगाई। बस और ट्रेनों को नहीं फुंका। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि लंबे समय तक एक ही पार्टी का राजशाही शासन भारतीय लोकतंत्र पर हावी रहा। परंतु वर्तमान में सरकार के सही गलत निर्णयों के ऊपर धरना, प्रदर्शन, आंदोलन की जो हिंसक परिणति सामने आई है, वह चिंताजनक है। विरोध तार्किक हो तो उसकी गरिमा बनी रहती है। पर हो क्या रहा है विरोध के नाम पर…बस, ट्रेन, अन्य सार्वजनिक, निजी संपत्तियों को आग लगा देना, हिंसक तोड़फोड़, हिंसक प्रदर्शन और जलाने वाले भी लोग कौन?

आज देश मे विरोध करने के तरीकों को लेकर अलग ही प्रदर्शन तकनीक अपनाई जा रही है जिसमे सार्वजनिक संम्पतियों को नुकसान पहुंचाने से भी गुरेज विरोध प्रदर्शन करने वाले नहीं कर रहें हैं और विरोध प्रदर्शन के नाम पर जमकर सार्वजनिक संम्पतियों को नुकसान पहुंचाया जा रहा जलाया जा रहा है। अभी अभी ताजा घटी घटना में ही अग्निवीर भर्ती योजना जो केंद्र सरकार की योजना है को लेकर जगह जगह विरोध प्रदर्शन किए गए वहीं सार्वजनिक संपत्ति जिसमें ट्रेनें बसें रेल्वे स्टेशनों सहित बस अड्डों में आग लगाई गई और जमकर तोड़फोड़ भी की गई। जैसा कि आंकड़ा सामने आ रहा है उसके अनुसार केवल रेल संम्पतियों को ही हजारों करोड़ो का नुकसान पहुंचाया गया है जो रेल पूरे भारतवासियों के लिए आवागमन का सुगम माध्यम है। देश मे विरोध प्रदर्शनों के दौरान विरोध करने वालों ने जहां सार्वजनिक संम्पतियों को नुकसान जमकर पहुंचाया वहीं ट्रेनों को नुकसान पहुंचाने के दौरान अलग अलग जगह यात्रा कर रहे यात्रियों के लिए भी विरोध करने वाले समस्या बने और यात्रियों के लिए दिक्कत खड़ीं की। अब सवाल यह उठता है कि देश की सार्वजनिक संम्पतियों को नुकसान पहुंचाना कहां तक जायज है क्योंकि सार्वजनिक संपत्तियां तो सभी के काम आतीं हैं और वह विरोध प्रदर्शन करने वालों के भी काम आतीं हैं। देश की सार्वजनिक संम्पतियों को सरकार के किसी निर्णय के विरोध में नुकसान पहुंचाना जलाना कहां तक उचित है यह सवाल जरूर उठता है।

सरकार के किसी निर्णय के विरोध में विरोध दर्ज करना प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार है लेकिन यह विरोध शांतिपूर्ण तरीके से भी दर्ज कराया जा सकता है और आम लोगों को समस्या न हो सार्वजनिक संम्पतियों को नुकसान पहुंचाए बिना भी अपनी बात सरकार तक पहुंचाई जा सकती है लेकिन पता नहीं क्या हो गया है अभी व्यक्ति की मानसिकता को लेकर विरोध में नुकसान पहुंचाना ही महत्वपूर्ण हो गया है और इसे ही बेहतर माध्यम माना जा रहा है विरोध दर्ज करने का। आज विरोध प्रदर्शनों के दौरान एक और चीज जो सामने दिख रही है और जिसकी वजह से उग्रता ज्यादा दिख रही है वह वजह है राजनीतिक विरोधी होना, एक दल की जहाँ सरकार है वहां अपने सरकार के या दल के निर्णय का विरोध होगा तो उसे सरकार दबाने पूरी ताकत लगा देगी और उसे रोक लेगी लेकिन यदि किसी अन्य दल की सरकार या दल के किसी निर्णय को लेकर विरोध दर्ज हो रहा उग्र हो रहा है तो उसको लेकर सरकार में बैठे दल मौन हो जाते हैं और सार्वजनिक सम्पतियों को नुकसान पहुंचने देते हैं।

लोकतंत्र मीठा रहे तभी बचा रहता है
लोकतंत्र मीठा रहे तभी बचा रहता है वर्ना खींच कर कोई भी इसे जमीन पर ला सकता है इतिहास गवाह है। परंतु आवश्यक सुधारों के लिए सदैव लोकतंत्र को मीठा ही तो नहीं रखा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर कड़वी दवा का घुंट पीना पड़ता है, व्याधि तो दूर होती है परंतु जिव्हा को कष्ट होता है, उसी प्रकार देश की स्थिति सुधारने के लिए कई ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिससे सभी वर्गों को खुश नहीं रखा जा सकता। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि असहमति के नाम पर देश में आग लगा दी जाए। विगत कुछ वर्षों में सरकार ने जो भी नए फैसले लिए हों, जो भी नए कानून लाने का प्रयास किया हो, चाहे वह कृषि सुधार कानून हो, नागरिकता संशोधन विधेयक हो, सीएए एनआरसी का मामला हो, आरक्षण की बात हो या वर्तमान में अग्निवीरों की भर्ती का प्रकरण हो… हर बार देश के असहमत नागरिकों द्वारा देश के ही अकुत संपत्ति का नुकसान किया गया और असहमत नागरिक कौन, जिन्हें यह भी नहीं पता कि वह विरोध किस चीज का कर रहे हैं। बस एक भीड़ इकट्ठी होती है और हिंसक प्रदर्शन प्रारंभ हो जाता है। भीड़ के हिस्से को यह तक पता नहीं होता कि वह किसका और क्यों विरोध कर रहा है? अब तो यह साधारण जनमानस के समझ में भी आने लगा है कि विरोध प्रदर्शन की आड़ में देश जलाने वालों के पीछे राजनीतिक पार्टियों, विभिन्न क्षेत्रों के माफियाओं का ही हाथ है। जो देश के किसान, नौजवान या अन्य वर्गों को सरकार के फैसलों के खिलाफ बरगला कर, जातिगत आरक्षण के नाम पर, धर्मांधता के नाम पर भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास करते हैं। असहमति है तो अपनी बातों को रखने का जायज तरीका भी है। विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की खूबसूरती में इजाफा करता है। परंतु विरोध तार्किक हो विरोध का तरीका लोकतांत्रिक हो। सरकार को झुकाने की आस मन में पाल कर, भड़काऊ बयान बाजी, लोगों को हिंसा के लिए उकसाना, साजिश के तहत देश को आग में झोंकना कहां तक जायज है?
सरकार कोई फैसला ले नहीं पाती उससे पहले ही हिंसक प्रदर्शनों का दौर क्यों प्रारंभ हो जाता है?
सरकार कोई फैसला ले नहीं पाती उससे पहले ही हिंसक प्रदर्शनों का दौर प्रारंभ हो जाता है। पहले आप सरकार के तर्कों को सुनिए, असहमति है तो अपने तर्कों से सरकार को अवगत कराइए, इसके बाद भी बात नहीं बनती तो धरना प्रदर्शन आंदोलन कीजिए। परंतु बगैर कोई तर्क और वाद के जिस प्रकार से सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया जाता है, ऐसा लगता है की तैयारियां पुर्व से ही की गई हों, बस अराजकता के लिए एक बहाना चाहिए। यह परिलक्षित भी हुआ जब सीएए एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान दिल्ली दंगों की तस्वीर सामने आई थी। ऐसा लगता था जैसे वर्षों से दंगों की तैयारी की गई हो बस एक बहाना बना और आग लगा दी गई।
प्रदर्शनकारियों के पास हथियार, बम और नुकसान करने वाली अन्य सामग्रियां आती कहां से हैं?
वर्तमान में भारत सरकार द्वारा अग्निवीर की भर्ती के मामले को ही देख लीजिए कि इक्का-दुक्का राज्य यथा बिहार इत्यादि में अरबों की संपत्ति फूंक दी गई। जो नौजवान सेना में जाने की आस पाले हों, उनके द्वारा ऐसा कृत्य किया जाना समझ से परे है। अवश्य ही इन हिंसक प्रदर्शनों के पीछे का कारण कोई और है।यदि नौजवानों, किसानों, या अन्य नागरिकों का प्रदर्शन सरकार के निर्णय के विरुद्ध है, तो ऐसी विध्वंसक सामग्रियों और विचारों का आंदोलन और प्रदर्शन में क्या काम? अवश्य ही कोई गहरी साजिश है। और इन साजिशों के पीछे जिन लोगों के हाथ हैं, उनके चेहरे उजागर होना देश हित में अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा अराजकता इतनी बढ़ जाएगी जिसकी कल्पना भी बड़ी भयावह है।


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