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अम्बिकापुर@तब सचमुच निर्वाचित सांसद चक्रधारी सिंह कांग्रेस में ही उपेक्षित किए गए थे

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मनोनीत सांसद प्रवीण प्रजापति को मिलता था कहीं ज्यादा मान सम्मान
डॉ. राजकुमार मिश्र
अम्बिकापुर सरगुजा छत्तीसगढ़

1980 के आमचुनाव में भाजपाई दिग्गज लरंगसाय को परास्त करके लोकसभा सदस्य बने चक्रधारी सिंह अब हमारे बीच नही हैं।निर्मम काल की कठोर गति ने उन्हें हमसे दूर कर दिया है मगर आज भी तटस्थ समीक्षक यह याद दिलाना नही भूले हैकि चक्रधारी सिंह को उनकी अपनी पार्टी,कांग्रेस ने ही वो महत्व नही दिया जिसके वह हकदार थे।
दरअसल इंदिरागांधी ने मप्र में अपने दल के किसी भी एक नेता को एकमात्र क्षत्रप,एकमात्र सर्वेसर्वा बनकर उभरने नही दिया।कांग्रेस में कोई भी कांग्रेसी इतना ताकतवर नही बनने दिया गया जिससे देरसबेर इंदिरागांधी के किसी निर्णय पर खटाई पड़ जाने का जरा सा भी खतरा हो सकता हो।इसीलिए मप्र कांग्रेस मे एकदूसरे को पसन्द नही करनेवाले ठाकुर और पंडित गुटों की खुन्नस को इंदिराजी ने खत्म कराने की कभी कोई ठोस पहल नहीं की।
सरगुजा में भी कांग्रेस दो खेमो में बंटी थी ।
एक(पंडित)गुट था जो स्थानीय स्तर पर विजयनाथ दुबे जी के जरिए विद्याचरण शुक्ल तक अपनी बात पहुंचाता था और दूसरा(ठाकुर)गुट सरगुजा पैलैस से जुडा रहकर अर्जुन सिंह की छत्रछाया में अपनी पहुंच उपरतक बनाए रखता था।
अपने काल मे इंदिरा जी ने सिर्फ एकबार सरगुजा के लिए अर्जुन सिंह वाले पैलेस गुट को दरकिनार किया था और विधानसभा के लिए पैलेस के प्रस्तावित नामों की बजाय पंडित गुट द्वारा सुझाए गए नामों को टिकट दे दी थी।इसी क्रम में लोकसभा की एकमात्र (आदिवासी)सीट के लिए पंडित गुट के चक्रधारी सिंह को टिकट दे दी गई थी।वह जीत भी गए थे।
इंदिराजी की इसतरह नजरें फिर जाने से पैलेस की बरगद जैसी मजबूत साख चरमरा गई थी।लेकिन फिर समय रहते ही हिमाचल प्रदेश के सीनियर मोस्ट कांग्रेस लीडर इंदिरा गांधी को यह समझा देने में कामयाब हो गए कि मैडम सरगुजा पैलेस की निष्ठा पर नाहक ही शक करने लगी थीं जबकि ग्वालियर राजघराने में माँ विजया राजे सिंधिया की संघी विचारधारा से उनके बेटे माधवराव जी को अलग करके कांग्रेस की ओर उन्मुख करने में सरगुजा पैलेस के महाराजा साहब ने तो निर्णायक भूमिका दिखाई थी।
उक्त पैरवी इतनी अचूक थी कि इंदिराजी सोच में पड़ गई मगर विधानसभा और लोकसभा के चुनाव तो तबतक सम्पन्न हो चुके थे ऐसे में पैलेस की शान बहाल करने के लिए उन्होंने बढ़िया रास्ता खोज निकाला और पहली बार सरगुजा से पैलेस के करीबी प्रवीण कुमार प्रजापति को राज्यसभा में मनोनीत कर दिया।
अब दोनों गुटों का संतुलन लगभग बराबर हो गया था अपने सिंह(ठाकुर) गुट के लिए बचीखुची कसर अर्जुन सिंह ने पूरी कर दिखाई।उंन्होने सरगुजा प्रशासन को अलिखित फरमान ऐसा दिया कि कदम कदम पर निर्वाचित सांसद चक्रधारी सिंह की मनोनीत सांसद प्रवीण प्रजापति से कहीं ज्यादा पूछपरख होने लगी।प्रजापति के एक फोन पर प्रशासन समर्पित भाव से एक्टिव हो जाता था मगर चक्रधारी जी को गाड़ी तक के लिए अफसरों से अनुरोध करके देर तक इंतजार में खड़ा रहना पड़ जाता था।यह भेदभाव अंततक बना रहा।
यह पत्रकार दोनों सांसदों का प्रियपात्र था।दोनों हमेशा हर मौकेपर इस पत्रकार के हर सवाल और सुझाव पर ध्यान दिया करते थे।चक्रधारी सिंह के आवास पर,जब वह उपलब्ध रहते थे,किसी भी वक्त बिना समय लिए जा सकता था और प्रजापति जी मार्ग में इस पत्रकार को कही भी देखते ही अपना वाहन रुकवाकर उतरकर किसी भी करीबी होटल में बिना कुछ खाए और खिलाए आगे नही जाते थे।
आज कांग्रेस के वे दोनों ही सितारे नही हैं।काश दोनों में सामंजस्य बैठा कर दोनों को इस विशाल आदिवासी क्षेत्र के हितों में एकराय से समर्पित करने की जरूरत इंदिराजी ने महसूस कर ली होती।


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