अब कोलंबो में समुद्री टर्मिनल बनाएगी भारतीय कंपनी
नई दिल्ली,02 अक्टूबर2021 (ए)।)। कोलंबो पोर्ट पर भारतीय कंपनी के स्वामित्व वाले समुद्री (डीप सी) टर्मिनल के निर्माण का रास्ता साफ हो गया है। बहुप्रतीक्षित योजना को श्रीलंका में सरकारी मंजूरी मिलने के बाद द श्रीलंका पोर्ट्स अथॉरिटी और भारत की निजी क्षेत्र की कंपनी के बीच इसके लिए करार हुआ है। श्रीलंका में आर्थिक कब्जे की ओर बढ़ रहे चीन के लिए इसे बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है।
इस परियोजना को श्रीलंका के बंदरगाह सेक्टर में अब तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश माना जा रहा है। द श्रीलंका पोर्ट्स ने एक बयान में कहा है कि यह समझौता करीब 70 करोड़ डॉलर का है। अडाणी समूह इस बंदरगाह को श्रीलंका की कंपनी जॉन कील्स के साथ मिलकर बनाएगी। जॉन कील्स करीब 34 फीसदी और अडाणी समूह का 51 फीसदी की भागीदार होगा। नए बनने वाले कंटेनर जेटी (पोर्ट) का नाम कोलंबो वेस्ट इंटरनैशनल टर्मिनल रखा गया है। परियोजना के पहले चरण में 600 मीटर टर्मिनल बनाया जाएगा और यह दो साल के अंदर पूरा हो जाएगा। करार के अनुसार, इस पर अगले 35 साल तक भारतीय कंपनी का स्वामित्व रहेगा, उसके बाद टर्मिनल श्रीलंका सरकार के अधीन हो जाएगा। यह नया कंटेनर जेटी हर साल 32 लाख कंटेनर का आवागमन संभालेगा। यह करीब 1.4 किलोमीटर लंबा और 20 मीटर गहरा है।
बहुप्रतीक्षित करार सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण
श्रीलंका के रणनीतिक रूप से बेहद अहम कोलंबो बंदरगाह में भारत को अनुमति मिलने में कई साल लग गए। सत्तारूढ़ गठबंधन से जुड़े ट्रेड यूनियन ने पहले भारत को पोर्ट के अंदर आंशिक रूप से बने टर्मिनल को देने का विरोध किया था। फरवरी में यह समझौता पूरा होना था लेकिन सहमति न बन पाने से लटक गया। अब इसकी सभी बाधाएं दूर कर ली गई हैं। श्रीलंका पर चीन का अरबों डॉलर का पुराना कर्ज है। अपनी बिगड़ती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए चीन से श्रीलंका ने फिर 2.2 बिलियन डॉलर का नया कर्ज मांगा था। इसके बदले उसे 2017 में भारी दबाव में हंबनटोटा बंदरगाह को 99 साल की लीज पर चीन को सौंपना पड़ा।
करार इसलिए महत्वपूर्ण
श्रीलंका को चीन की कर्ज के जाल में उलझते देख कई देश चिंतित हैं। दरअसल यह डर बना हुआ है कि कहीं चीन कर्ज के एवज में श्रीलंका को धीरे-धीरे पर गिरफ्त में न ले ले। ऐसा हुआ तो हिंद महासागर में चीन का दखल और प्रभाव बढ़ जाएगा। श्रीलंका ने 1.4 अरब डॉलर के लोन के बदले हंबनटोटा बंदरगाह ही चीनी कंपनी को सौंप दिया था। बाद में भारत की ओर से आपत्ति पर श्रीलंका ने इस पोर्ट का इस्तेमाल मिलिट्री सर्विस के लिए रोक दिया था।