
बीसवीं सदी में प्लेग,हैजा,तपेदिक, डिप्थीरिया और निमोनिया जैसे असंख्य रोगों के आगे लाचार मानव जाति को एंटीबायोटिक्स ने नई आशा दी। यह विज्ञान का वह वरदान था, जिसने जीवन प्रत्याशा को बढ़ाया, नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को घटाया और सर्जरी को सुरक्षित बनाया। परंतु आज, जब हम एंटीबायोटिक प्रतिरोध की वैश्विक महामारी के मुहाने पर खड़े हैं, तो हमें यह सोचने को विवश होना पड़ रहा है कि कहीं यह वरदान हमारे अपने ही हाथों एक अभिशाप में तो नहीं बदल गया है।
हाल ही में मर्डोक चिल्ड्रन रिसर्च इंस्टीट्यूट और क्लिंटन हेल्थ एक्सेस इनिशिएटिव द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में यह चौंकाने वाला राजफाश सामने आया है कि वर्ष 2022 में 30 लाख से अधिक बच्चों की मृत्यु ऐसे संक्रमणों के कारण हुई जो अब एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी हो चुके हैं। यह आंकड़ा केवल मृत्यु का नहीं, बल्कि हमारी वैज्ञानिक मानसिकता के पतन का भी संकेत
रोगाणुरोधी प्रतिरोध का यह संकट दर्शाता है कि हमने विज्ञान को केवल त्वरित समाधान के रूप में अपनाया, न कि उसके दीर्घकालिक संदर्भों को समझा। एएमआर तब पैदा होता है जब सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, वायरस,और फफूंद इस तरह से विकसित हो जाते हैं कि दवाएं उन पर असर नहीं करतीं। इसका प्रमुख कारण एंटीबायोटिक्स का अत्यधिक और अनुचित प्रयोग है-बिना चिकित्सकीय परामर्श के दवाइयां लेना,अधूरा इलाज छोड़ देना या मामूली लक्षणों पर भी इन दवाओं का उपयोग करना । कोविड महामारी ने इस प्रवृत्ति को और गहरा कर दिया। डर और अनिश्चितता के माहौल में एंटीबायोटिक्स का अंधाधुंध उपयोग हुआ, विशेषकर अस्पतालों में, जहां इन दवाओं को वायरस के संक्रमण पर भी दिया जाने लगा, जबकि वे वायरल बीमारियों पर असर नहीं करतीं ।इसका सबसे भयानक प्रभाव
बच्चों पर पड़ा है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां स्वास्थ्य सुविधाएं पहले से ही कमजोर हैं। अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में बच्चों की मृत्यु दर में असामान्य वृद्धि देखी गई है। इन क्षेत्रों में एक और दवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता की समस्या है, तो दूसरी और जागरूकता की कमी और अनियंत्रित औषधि वितरण ने समस्या को और विकराल बना दिया है। भारत में बिना चिकित्सक की सलाह के फार्मेसी से दवाइयां लेना आम बात है, जिससे गलत अधूरा इलाज होता है और बैक्टीरिया को प्रतिरोधी बनने का अवसर मिलता है।
इस संकट से निकलने का मार्ग भी विज्ञान के पास है, बशर्ते हम उसे विवेक और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनाएं। पहली आवश्यकता है नीतिगत स्तर पर एंटीबायोटिक्स के उपयोग पर कड़े नियंत्रण की । यदि हमने नीतियों में बदलाव नहीं किया, तो वह समय दूर नहीं जब साधारण संक्रमण भी जानलेवा बन जाएंगे और हम उसी अंधकार में लौट जाएंगे जहां से विज्ञान ने हमें निकाला था।
विजय गर्ग
चांद मलोट
पंजाब