
मनुष्य की बुद्धिमत्ता उसकी कल्पना से कहीं अधिक समृद्ध और गतिशील है, जितना कि हमें औपचारिक शैक्षणिक शिक्षा द्वारा विश्वास दिलाया गया है-प्रसिद्ध शिक्षाविद् सर केन रॉबिन्सन द्वारा कही गई यह बात हमें मनुष्य और उसकी बुद्धिमत्ता का परिचय दे देती है। मनुष्य को सभी जीवों में क्यों उच्चतम जीव माना गया है? यहां तक कि उसका जीवन एक वरदान के समान क्यों है? इन सब बातों का जवाब केन द्वारा सिर्फ इसी एक कथन से साफ हो जाता है।
दरअसल, मनुष्य की बौद्धिक क्षमताएं असीम है। हालांकि, दूसरे जीवों में भी यह पहलु व्याप्त है, लेकिन उसका एक दायरे में सिमटाव है। मनुष्य के मामले में यह बिल्कुल अलग है। वास्तविकता
यह है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता अपार है, उसकी जिज्ञासा अटल है,जिसके कारण उसकी अनंत संभावनाओं तक पहुंचने और प्रकृति को अपनी स्थिति के अनुकूल बनाने का बल है। अमेरिकी राजनीतिज्ञ और अभिनेता रोनाल्ड रीगन भी इस बात से सहमति जताते थे। उनके मुताबिक मानव बुद्धि और उसकी कल्पना की कोई सीमा नहीं है। यहां यही वह वजह है कि मनुष्य का वाकी जीवों की तुलना में अनादिकाल से ज्यादा विकास हुआ है। यह उसकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण ही है, कि वह आज इतना काबिल हो गया कि उसने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी अद्भुुत तकनीकों का निर्माण दिया है।
प्रकृति के नजरिए से देखा जाए तो यह सब संभव ही नहीं था। लेकिन मनुष्य ने अपनी प्रतिभाओं के जरिए, नवाचारों को जन्म देकर, नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया। आज मनुष्य लगभग हर क्षेत्र में विजय हासिल कर रहा है। जैसे चिकित्सा के क्षेत्र में, जहां मनुष्य प्रकृति को सीधी चुनौती देते हुए, तमाम खोजों के माध्यम से अपने जीवन को बेहतर बना रहा है। सरल शब्दों में कहा जाये तो मनुष्य चार्ल्स डार्विन की सर्वाइवल आफ दी फिटेस्ट जैसे सिद्धांतों को ही गलत साबित कर रहा है।
हालांकि,इन सब बातों के चलते हम अपनी बुद्धिमत्ता की छवि को तो देख रहे हैं। अपने विकास के पीछे का कारण तो जान रहे हैं। लेकिन, यहां अपने विकास के साथ, प्रकृति और उसके आयामों का कितना विकास हुआ है? हमारी बुद्धिमत्ता से प्रकृति को कितना लाभ और उसपर कितना असर पड़ा है? यहां यह भी जानने कि हमें आवश्यकता है। आखिरकार, हमारी बुद्धिमत्ता का सृजन प्रकृति से ही तो हुआ है। अब इसी संदर्भ में बात कि जाये तो हम अपने विकास के दौरान प्रकृति, उसके आयामों और यहां तक कि उसके द्वारा दुनिया में कायम संतुलन को भी असंतुलित कर रहे है। उदाहरण के रूप में, आज जिस स्तर पर हम बाढ़, भूकंप और भूस्खलन जैसी प्राकर्तिक विपदाओं का सामना कर रहे है। लगभग एक सदी पहले इस स्तर पर न कोई विपदा देखी गई थी, और न ही हम कल्पना कर सकते थे। आज हम अपने आप को अक्सर विकसित कहते नहीं थकते हैं। लेकिन यहां सोचने वाली बात है कि, क्या हम वास्तव में विकसित है? बुद्धिमत्ता के मामले में तो इसका उत्तर हाँ है। लेकिन जीवन के मामले में इसका उत्तर ना होगा।
इसके अलावा,हमें यहां एक और बात समझने की जरूरत है। हम बुद्धिमान जीव है और गतिशील जीव भी। इसमें कोई दोराय नहीं है। लेकिन हमारी बौद्धिक क्षमताएं कितनी मुसीबतों को निमंत्रण दे रही हैं। इस बात का भी हमें इल्म होना चाहिए। विश्व आर्थिक मंच द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार,मानव गतिविधियों ने पृथ्वी का हद से ज्यादा हनन किया है। उसे ऐसी विकट परिस्थिति में धकेल दिया है। जहां वैज्ञानिकों द्वारा रेखांकित नौ पारिस्थितिक सीमाओं में से चार पहले ही पार कर ली गई हैं। जिसमें जलवायु परिवर्तन,जैव विविधता की हानि, भूमि उपयोग में परिवर्तन, और नाइट्रोजन व फॉस्फोरस चक्रों में असंतुलन शामिल हैं। इन सीमाओं को पार करने से अब पृथ्वी की स्थिरता प्रभावित हो सकती है। जिससे गरीबी उन्मूलन और जीवन की गुणवत्ता सुधारने के सारे प्रयासों को सीधा नुकसान पहुंच सकता है। विशेषज्ञों का यहां यह भी कहना है कि इन सभी परिवर्तनों में जलवायु परिवर्तन सबसे गंभीर पार की गई सीमा है, क्योंकि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 350 भाग प्रति मिलियन से बढ़कर 395 भाग प्रति मिलियन हो गया है। यह स्थिति पृथ्वी की प्रणाली में अचानक और अपरिवर्तनीय परिवर्तनों का कारण बन सकती है,जैसे कि आर्कटिक बर्फ की चादरों का पिघलना, जो और अधिक ग्रीनहाउस गैसों को मुक्त कर सकता है।
मनुष्य उर्जा का भंडार है। वह उर्जा जिसके बिना प्रकृति अधूरी है। लेकिन यहां प्रकृति मनुष्य से उसके हित और विस्तार की उपेक्षा करती है, न कि उसके विध्वंस का। आज मनुष्य अपनी उर्जा का प्रयोग अपने हित के लिए कर रहा है। हालांकि, पहले भी मनुष्य अपनी प्रतिभा का प्रयोग अपने लाभ के लिए करता आया है। लेकिन, यहां फर्क बस इतना है,कि पहले मनुष्य प्रकृति के साथ साझेदारी बनाकर अपना विकास करता था,जोकि आज प्रभुत्व से बदल गया है। हाल ही में हुआ हैदराबाद का कांचा गाचीबोवली विवाद इसका सटीक उदाहरण है,जहां 30 मार्च से 2 अप्रैल के बीच,आईटी पार्क के निमार्ण के चलते लगभग 2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के जंगल और वनस्पतियों को नष्ट कर दिया गया। यह उदाहरण असल में मनुष्य का स्वार्थ साबित कर देता है,जहां मनुष्य अपने हित के लिए कार्य कर रहा है। जहां उसे प्रकृति से कुछ लेना-देना नहीं है। आज मनुष्य की बुद्धिमत्ता, उसकी जिज्ञासा और रचनात्मकता ने उसे विकास की नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। लेकिन जब यही बुद्धिमत्ता प्रकृति के विरुद्ध खड़ी हो जाती है, तब उसका विनाशकारी रूप सामने आता है। आइंस्टीन ने कहा था—हम समस्याएं उसी सोच से हल नहीं कर सकते, जिससे हमने उन्हें पैदा किया है। आज यही बात हमारे समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। हमें अब यह समझने की आवश्यकता है कि असली बुद्धिमत्ता वही है, जो सृजन करे, न कि विनाश।
प्रकृति और मानव के बीच का संतुलन ही स्थायी विकास की कुंजी है। यदि हम वाकई बुद्धिमान हैं, तो हमें अपने विकास की गति को प्रकृति की मर्यादाओं के अनुरूप ढालना होगा। गांधीजी का यह कथन आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है—पृथ्वी हर व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा कर सकती है, लेकिन हर व्यक्ति के लालच को नहीं। इसलिए आज आवश्यकता है एक ऐसी चेतना की,जो बुद्धिमत्ता को जिम्मेदारी से जोड़ सके,ताकि आने वाली पीढç¸याँ भी इस धरती को उतना ही सुंदर और जीवनदायी पाएँ, जितना हमें विरासत में दिया गया। आज मनुष्य कि बुद्धिमत्ता उसे इसलिए वाकी जीवों से अलग करती है, क्योंकि वह प्रकृति को अन्य जीवों से ज्यादा समझ पाया है। यही वजह है कि मनुष्य प्रकृति का ज्यादा उपयोग कर पाया। आज यह हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हम प्रकृति का सम्मान करें। चूंकि हमारी बुद्धिमत्ता प्रकृति की देन है, हमें उसका ऋ णी होना चाहिए। अंततः हम और हमारी बुद्धिमत्ता का परिचय सतत विकास के साथ हो, यह हमारा आज प्रयास होना चाहिए।
निखिल रस्तोगी
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश