विज्ञान मानव को जीवन जीने की एक दृष्टि देता है। चिंतन की आधारभूमि भेंट कर चलने को उजास भरा पथ प्रदान करता है। वास्तव में विज्ञान जीवन से जडता, अविद्या, अंधविश्वास, अतार्किता एवं संशय से मुक्ति का नाम है। विज्ञान व्यक्ति को तर्कशील एवं प्रयोगधर्मी बनाकर सवाल खड़े करने की सामर्थ्य पैदा करता है। विज्ञान मानवीय मेधा का उच्चतम आदर्श है। वसुधा के सौंदर्य को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए प्राणिमात्र के लिए प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपभोग का मार्गदर्शन ही विज्ञान है। विज्ञान में समस्या है तो समाधान भी, कल्पना है तो प्रयोग भी। सवाल हैं तो उत्तरों की तह तक पहुंच सत्य का साक्षात्कार करने का सत्संकल्प भी। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के माध्यम से हम इस भाव एवं चेतना को सिंचित कर समृद्ध करते हैं। राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् एवं विज्ञान मंत्रालय द्वारा युवाओं एवं बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विज्ञान अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के उद्देश्य से 1986 से प्रत्येक वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। उल्लेखनीय है 28 फरवरी, 1928 को ही सी.वी. रमन ने लोक सम्मुख अपनी विश्व प्रसिद्ध खोज ‘रमन प्रभाव’ की घोषणा की थी। ‘रमन प्रभाव’ के लिए ही 1930 में सी.वी. रमन को नोबेल पुरस्कार मिला था। सी.वी. रमन एशिया के पहले भौतिक शास्त्री थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। अमेरिकन केमिकल सोसायटी ने 1998 में ‘रमन प्रभाव’ को अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान के इतिहास की एक युगान्तकारी घटना के रूप में स्वीकार किया। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस वास्तव में ‘रमन प्रभाव’ के स्मरण के साथ जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का दिन है, जिसकी हमें जरूरत है। चंद्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 को तमिलनाडु में कावेरी के तटपर स्थित तिरुचिरापल्ली नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपकी माता पार्वती अम्मा कुशल गृहिणी एवं पिता चन्द्रशेखर भौतिकशास्त्र एवं गणित के प्राध्यापक थे। घर पर एक समृद्ध लघु पुस्तकालय था तो तार वाद्ययंत्रों का संच भी। संगीत में रुचि के चलते वीणा वादन पिता जी की नित्य साधना थी। वीणा के तारों के कम्पन से निकली मधुर ध्वनि बालक रमन को अपनी ओर खींचती। वह सोचते कि इन तारों को छेड़ने से एक विशेष लय, प्रवाह, आरोह-अवरोह में मनमोहक ध्वनि कैसे उत्पन्न हो सकती है। यही जिज्ञासा बाद में उनके ध्वनि सम्बंधी शोधों का आधार भी बनी। चार वर्ष की उम्र में ही पिता का तबादला विशाखापट्टनम हो जाने से रमन की प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं शुरू हुई। यहां घर के सामने लहराता सागर का नीला जल रमन का ध्यान आकर्षित करता। बालमन सोचता कि घर और सागर के जल में यह अन्तर कैसे। मकान की खिड़की से वह सागर की लहरों को अठखेलियां करते देखते रहते मानो जल के नीलेपन के रहस्य का कोई तोड़ खोज रहे हों। रमन ने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में 1903 में बी.ए. में प्रवेश लिया और विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर गौरव अर्जित किया। 1907 में एम.ए. गणित प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण किया। परास्नातक करते समय ही 1906 में ‘प्रकाश विवर्तन’ विषय पर शोध पत्र लिखा जो लंदन से प्रकाशित विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘फिलसोफिकल मैगजीन’ में छपा। 1907 में ही आपने असिस्टेंट एकाउंटेंट जनरल के रूप में कलकत्ता में कार्यभार ग्रहण किया। पर रमन का मन तो विज्ञान की दुनिया में ही रमा था। फलतः एक दिन कार्यालय से घर आते समय 1876 में स्थापित ‘इंडियन एसोसिएशन फार दि कल्टीवेशन ऑफ साइंस’ की प्रयोगशाला में सुबह-शाम चार-चार घंटे ‘ध्वनि में कम्पन एवं कार्य’ के क्षेत्र में प्रयोग करने लगे। वह स्कूली बच्चों को प्रयोगशाला लाकर विज्ञान के विभिन्न प्रयोग करके दिखाते ताकि बच्चे विज्ञान की दुनिया को करीब से देख-परख सकें। कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति आशुतोष मुखर्जी के कहने पर 1917 में आपने नौकरी से त्यागपत्र देकर भौतिकी का प्राध्यापक बनना स्वीकार कर लिया। 1921 में ब्रिटेन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के कांग्रेस में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने हेतु ऑक्सफोर्ड जाना हुआ। लौटते समय भूमध्य सागर के जल का नीलापन देखकर आप आश्चर्यचकित रह गए। विचार किया कि समुद्र के जल में नीलापन किस कारण से है। उपकरण लेकर आप जहाज के डेक पर आ गये और घंटों सिन्धु जल का अवलोकन-निरीक्षण और प्रयोग करते रहे। इस दौरान पूर्व में विज्ञानवेत्ताओं द्वारा खोजे गये सिद्धांत और निष्कर्ष आंखों के सामने घूमते रहे कि जल का नीलापन समुद्र के अन्दर से प्रकट हो रहा है। पर आप उनसे सहमत नहीं हो पा रहे थे। तब रमन ने इस रहस्य की खोज करने का संकल्प लिया और भारत आकर आपने प्रयोगशाला में 1921 से 1927 तक शोध किया जिसकी परिणति ‘रमन प्रभाव’ के रूप में हुई। ‘रमन प्रभाव’ प्रकाश का विभिन्न माध्यमों से गुजरने पर उसमें होने वाले भिन्न-भिन्न प्रकीर्णन के कारणों का अध्ययन है। सात साल की साधना के फल ‘रमन प्रभाव’ पर आधारित शोध पत्र ‘नेचर’ पत्रिका में सर्वप्रथम छपा था। 1924 में आपको रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन का फैलो बनाया गया। 1927 में जर्मनी ने जर्मन भाषा में भौतिकशास्त्र का बीस खंडों का एक विश्वकोश प्रकाशित किया। इसमें वाद्य यंत्रों से सम्बंधित आठवें खंड का लेखन रमन द्वारा किया गया। यह उल्लेखनीय है कि इस विश्वकोश को तैयार करने वाले आप एकमात्र गैर जर्मन व्यक्ति थे। उनके 2000 शोध पत्र विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए। 1948 में आपने सेवानिवृत्ति के बाद बेंगलुरु में ‘रमन शोध संस्थान’ की स्थापना की।
भारत सरकार ने 1954 में महान कर्मयोगी विज्ञानी रमन के योगदान और वैज्ञानिक उपलब्धियों का वंदन करते हुए ‘भारत रत्न’ पुरस्कार प्रदान किया। रूस ने 1957 में ‘लेनिन शंन्ति पुरस्कार’ भेंटकर सम्मानित किया। संचार मंत्रालय ने 20 पैसे का एक टिकट जारी कर आपकी स्मृति को अक्षुण्ण बना दिया। विश्व का यह महान भौतिकविद् 21 नवम्बर, 1970 को अपना लौकिक जीवन पूर्ण कर हमें अकेला छोड़ अंतिम यात्रा पर प्रस्थान कर गया। लेकिन जब तक दुनिया में भौतिकी का अध्ययन होता रहेगा तब तक ‘रमन प्रभाव’ अमर रहेगा और चन्द्रशेखर वेंकट रमन भी कोटि उरों में जीवित एवं श्रद्धास्पद बने रहेंगे।।
प्रमोद दीक्षित मलय
बांदा, उत्तरप्रदेश
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