
सिख धर्म दुनिया के अलग-अलग धर्मों से सबसे अलग ही नहीं बल्कि मानवता का कल्याण करने वाला भी है। सिख धर्म के संस्थापक, श्री गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोविंद सिंह तक 10 गुरुओं ने धर्म और देश के लिए जो अलग-अलग कुर्बानियां दी और मुगल बादशाहों के जुल्म सहे उसके बावजूद भी उन्होंने धर्म तथा देश हित के लिए अपना रास्ता नहीं बदला। गुरु अर्जन देव जी को जलते हुए तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया गुरु तेग बहादुर ने धर्म और देश की खातिर अपना शीश कुर्बान कर दिया और गुरु गोविंद सिंह ने देश और धर्म की रक्षा के लिए अपना सारा परिवार कुर्बान कर दिया। ऐसे सिख धर्म और उनके गुरु साहबानों को शत शत नमन। हम सबको सिख धर्म के गुरु साहिबानों के द्वारा दिखाए गए देश भक्ति, इंसानियत, धर्म पर चलना तथा जात पात में विश्वास न रखना, कठिन परिश्रम करना तथा बांटकर खाना आदि बातों पर चलने की कोशिश करनी चाहिए।
सिख धर्म के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर,1666 को पटना में पिता गुरु तेग बहादुर तथा माता गुजरी के घर पटना में हुआ। उनका बचपन का नाम गोविंद राय था। अभी वह मुश्किल से 9 साल के ही होंगे जबकि कुछ कश्मीरी पंडित उनके पास आए और मुगल बादशाह की शिकायत करते हुए कहने लगे कि मुस्लिम लोग हमें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए जोर जबरदस्ती करते हैं, हमें हिंदू धर्म पर चलने के लिए रोकते हैं, ऐसा न करने पर मौत के घाट उतार देते हैं। यह सुनकर गुरु तेग बहादुर ने कहा कि इसके लिए किसी बड़े आदमी को कुर्बानी देनी पड़ेगी। यह सुनकर पास बैठे हुए बच्चे गोविंद राय ने कहा…आप से बड़ा आदमी कौन हो सकता है? यह सुनकर गुरु तेग बहादुर ने उन कश्मीरी पंडितों को कहा…कि मुगल बादशाह को यह कहो कि अगर वह गुरु तेग बहादुर को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए राजी कर ले तो बाकी लोग भी इस धर्म को अपना लेंगे। इसके बाद गुरु तेग बहादुर जी दिल्ली के तरफ चल पड़े और चांदनी चौक में बहुत भारी संख्या में हिंदू और और मुसलमान लोग यह जानने के लिए एकत्रित हो गए कि गुरु तेग बहादुर इस्लाम धर्म अपनाते हैं या नहीं। जब गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मना कर दिया तब उनका शीश धड़ से अलग कर दिया गया। दिल्ली में चांदनी चौक में प्रसिद्ध शीशगंज गुरुद्वारा उसी जगह पर बना हुआ है जहां पर गुरु तेग बहादुर जी ने अपने शीश की कुर्बानी दी थी। यह गुरुद्वारा श्री गुरु तेग बहादुर की शहादत के प्रति मान तथा सम्मान प्रकट करने के लिए ही बनाया गया है। इसके बाद 9 साल की उम्र में ही गोविंद राय जी को गुरु तेग बहादुर का वारिस बनाकर गद्दी पर बैठा दिया क्या और वह सिख धर्म के सबसे कम उम्र के गुरु बने।
जैसे-जैसे गुरु गोविंद राय बड़े होते गए उन्होंने संस्कृत, फारसी, हिंदी आदि कई भाषाएं सीखीं। तलवार चलाना तथा घुड सवारी करना सीखा। वह न केवल भारतीय संस्कृति को जानने और समझने वाले थे बल्कि बहादुर व्यक्ति भी थे। जब वह बड़े हुए तो उनका साहिब कौर के साथ विवाह हुआ और उनके चार सुपुत्र साहिबजादा अजीत सिंह, साहिबज़ादा फतेह सिंह, बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह थे
1699 में बैसाखी वाले दिन उन्होंने सिख पंथ की नींव रखी। जाति प्रथा का समापन करने के लिए उन्होंने अलग-अलग जातियों से पांच व्यक्तियों को लेकर…पांच प्यारे… की प्रथा चलाई। उन्होंने सिखों को खालसा कहा जिसका मतलब है शुद्ध या पवित्र। उन्होंने हर सिख व्यक्ति को अमृत पान करने के बाद कच्छा, कड़ा, केश, कृपाण तथा कंघा धारण करने के लिए कहा। इन्हें …पांच ककार भी कहा जाता है।
गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को अपने नाम के बाद सिंह लगाने के लिए कहां और कहा के भविष्य में मैं प्रत्येक सिख में वास करूंगा। जब गुरु गोविंद सिंह घुड़सवारी करते थे तो उनके एक हाथ में बाज होता था इसलिए उनको…बाजांवाला…भी कहते हैं। उनको संत सिपाही तथा दशमेश पिता भी कहा जाता है। गुरु गोविंद सिंह जी एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में तलवार रखते थे जिसका मतलब है कि प्रभु का सिमरन करो और अगर आपका धर्म खतरे में हो तो आप हथियार का इस्तेमाल भी कर सकते हो।
एक बार मुगलों की भारी फौज ने गुरु गोविंद सिंह, उनके शहजादों और सिंहों को चमकौर साहिब में घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। एक एक सिख ने कई कई मुगल सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। गुरु गोविंद सिंह ने बाज रूपी सिखों को चिडç¸यों जैसे मुगल सिपाहियों से युद्ध करवाया और मुगल सैनिकों को भारी नुकसान हुआ लेकिन अफसोस की बात यह है के इस युद्ध में गुरु गोविंद सिंह के दो बडे साहिबजादे शहीद हो गए। उसके बाद गुरु गोविंद सिंह, उनकी माता गुजरी और दो छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह सरसा नदी पर एक दूसरे से अलग हो गए। माता गुजरी अपने दो छोटे लालों के साथ पंजाब की तरफ चल पड़ी। इस दरमियान उनकी मुलाकात पुराने वफादार रसोईऐ, गंगू से हो गई जिसने उन्हें अपने घर में शरण देने तथा रक्षा करने का आश्वासन दिया। परंतु गद्दार गंगू ने सरहंद के नवाब,वजीर खान को यह सूचना दी कि उसे अपने जिन दुश्मनों की तलाश थी उनकी माता तथा दो छोटे बेटे उनके घर में हैं। इस बात से खुश होकर खान ने गंगू को बहुत सारी अशरफियां दी और उसने गुरु गोविंद सिंह जी के दोनों छोटे साहबजादों को वजीर खान के हवाले कर दिया। वजीर खान ने उनको इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए कहा लेकिन गुरु गोविंद सिंह जी के दोनों छोटे साहिबजादे लगातार जपजी साहब का पाठ करते रहे और बीच-बीच में…बोले सो निहाल, सत श्री अकाल…कहते रहे। आखिर में वजीर खान ने इन दोनों साहबजादों को सरहंद में एक दीवार में जिंदा चिनवा दिया। और उनकी दादी, माता गुजरी को भी ऊपर किले से फेंकवा कर शहीद कर दिया। इन दोनों छोटे साहिबजादों की याद में सरहिंद में एक गुरुद्वारा बना हुआ है।
युद्ध लड़ने के हिसाब से गुरु गोबिंद सिंह ने केशगढ़, फतेहगढ़, आनंदगढ़ तथा लोहगढ़ के किले बनवाए। कहना ना होगा कि पहाड़ी राजा लोग गुरु गोविंद सिंह की बढ़ती हुई ताकत से घबराते थे इसलिए उन्होंने मुगल बादशाह औरंगजेब के साथ साथ गांठ करके गुरु गोविंद सिंह को नुकसान पहुंचाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया। दमदमा साहब में अपनी याद शक्ति और बुद्धिमत्ता के फल स्वरुप गुरु ग्रंथ साहब का उच्चारण किया और भाई मनी सिंह ने गुरबाणी को लिखा। गुरु गोविंद सिंह ने सिख धर्म में गुरु प्रथा को समाप्त कर दिया और आगे को सब सिखों को यह आदेश दिया के भविष्य में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी गुरु जी कहलाएंगे। गुरु मान्यो ग्रंथ। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने औरंगजेब के साथ 42 साल तक मुकाबला किया। गुरुजी दक्षिण में नांदेड़ में चले गए जहां पर सरहंद के नवाब ने दो पठान सैनिकों को भेज कर गुरु जी को धोखे से शहीद करवा दिया। उनकी शहादत 41 साल की कम उम्र में 7 अक्टूबर , 1708 में नांदेड़ में तखत सचखंड श्री हजूर साहब में हुई। इस तरह देश तथा धर्म की रक्षा करने वाले सिख धर्म के दसवें गुरु ज्योति जोत समा गये। गुरु गोविंद सिंह के सिख धर्म, मानवता के प्रति कर्तव्य, वीरता तथा विद्वता को हमेशा सम्मान से याद किया जाएगा। गुरु गोविंद सिंह को कलगीधर, बाजांवाला, संत सिपाही, दशमेश पिता, सरबंसदानी भी कहा जाता है। वैसे तो सिख धर्म में 10 गुरुओं का अपना अपना महत्व तथा योगदान है परंतु गुरु गोविंद सिंह जी का महत्व तथा योगदान अपना एक विशेष स्थान रखता है जिसके लिए उन्हें युगो युगांत्रों तक श्रद्धा से याद किया जाएगा।
प्रोफेसर शाम लाल कौशल
रोहतक-124001( हरियाणा)