लेख@ देश की सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक विद्रूपताओं पर गहरी चोट

Share

जैसा कि सर्व विदित है कि हम भारत के लोगों के द्वारा 26 नवंबर 1949 को जो संविधान अंगीकृत,आत्मार्पित किया गया है जिसका एकमात्र उद्देश्य ऐसा लोकतांत्रिक गणराज्य बनाना है जिसमें आजादी की गरिमा को सामान्य नागरिक के लिए सुनिश्चित करना हो या यों उद्भाषित करें कि एक ऐसा समाज जहां नागरिक अपने मानव-सार या अपने स्वत्व को पहचान सके, अपने भीतर की सभी संभावनाओं की तलाश कर सके। हमारे देश की संरचना लोकतांत्रिक तो है ही पर यहां लोकतंत्र व्यापक शब्दों में आकर स्तंभित हो जाता है । लोकतंत्र के इस शब्द में व्यापक समावेशी अर्थों में संपूर्ण लौकिक, आत्मिक सोपानों को समाहित करते हुए व्यक्ति के आपसी संवाद,भाषा, मूल्य की सही मीमांसा नागरिकों के लिए एक दुः स्वप्न की तरह ही है । यह स्वप्न अब वर्तमान संदर्भों में और दुष्कर हो गया है। राजशेखर चौबे की कृति संतरा गणतंत्र भी इसी तर्ज पर लिखा गया व्यंग्य संग्रह है, जिस तरह संतरा ऊपर से एकाकार दिखाई देकर अंदर से अलग-अलग हिस्सों में बंटा हुआ होता है इसी तरह भारत देश भी अलग-अलग संप्रदाय जातियों एवं सामाजिक रीति-रिवाज से बंटकर भी एक लोकतांत्रिक देश है। इस संग्रह में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की अड़चनों और रूकावटों की गहरी पड़ताल है जो इस समय की सबसे बड़ी मांग है और जिसे लेखक ने अपने शब्दों में व्यंग्य के माध्यम से पाठकों के मध्य परोसा है। इसमें विभिन्न पारंपरिक बाधाओं, रूकावटों के बाद भी देश का 78 वर्षों से संचालन होना आश्चर्यजनक तो है ही साथ में सत्य भी है परंतु यह प्रश्न उठता है कि सारे मुक्तिकामी मूल्य, अग्रगामी संघर्ष इस प्रश्न की चौखट पर हांफते नजर आते हैं। कल्पना कीजिए कि हमारे परिवार में ही लोकतांत्रिक मूल्य न बचे हो तो समग्र रूप से देश में इसकी परिकल्पना बेमानी होगी और यह भी कल्पना कीजिए कि जिस परिवार में लोकतंत्र अस्तित्व में नहीं है या कमतर है वहां सदस्य गण हिंसाओं, विषमताओं दमन तथा क्रूरता पर आधारित हो , यह सामाजिक रूप से विसंगतियां पैदा करते हों तब भी क्या परिवार के बच्चे स्वस्थ,उच्चतर जीवन मूल्यों की ओर उन्मुख हो सकते हैं। यही व्यापक प्रश्न समग्र रूप से बड़े कैनवास पर उतारकर व्यंग्यकार ने अपने संग्रह में न सिर्फ देश की बल्कि वैश्विक समाजार्थिक समस्याओं के विरोध में अपनी कलम चलाई है। संतरा गणतंत्र (बनाना-रिपब्लिक) की तर्ज पर लिखा गया संग्रह है । यहां बहुत ही उल्लेखनीय है कि बनाना गणतंत्र 1904 में अमेरिकन लेखक ओ हेनरी ने इस लोकोक्ति का प्रयोग किया था जिसमे उल्लेखित किया है कि केला गणतंत्र जिसे अंग्रेजी मूल में बनाना रिपब्लिक कहा जाता है एक राजनीतिक रूप से अस्थिर देश होता है जिसकी अर्थव्यवस्था किसी ऐसे विशेष कृषि खनिज या अन्य उत्पादन के निर्यात पर निर्भर हो एवं जिसकी विश्व में भारी मांग हो। भारत अब हर दिशा में हर उत्पादन को सर्वाधिक सर्वोपरि रख आत्मनिर्भर देश होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है आने वाले वर्षों में तीसरी बड़ी आर्थिक अर्थव्यवस्था बन सकता है । खैर यह भारतीय गणतंत्र पर संदर्भित व्यंग्य लिखा गया है। राजशेखर चौबे ने अपने व्यंग्य संग्रह में 56 व्यंग्य लिखें अब आप समझ जाएंगे ही कि किसी राजनेता का सीना 56 इंच का हो सकता है तो व्यंगकार की 56 रचनाएं क्यों नहीं? राजशेखर चौबे का पहला व्यंग्य संग्रह आजादी का जश्न जिसकी भूमिका मेरे द्वारा ही लिखी गई थी, दूसरा व्यंग्य संग्रह स्ट्राइक 2.0 तीसरा व्यंग्य संग्रह निठ्ठलों का औजार-सोशल मीडिया पाठकों के समक्ष आई थी जिसे देश के पाठकों से काफी स्नेह तथा प्यार भी मिला है, अब यह चौथा व्यंग्य संग्रह संतरा गणतंत्र पाठकों के सामने पढ़ने के लिए उपलब्ध है। इस संग्रह में यह कहने का प्रयास किया गया है कि लोकतंत्र का यह मूलभूत सिद्धांत है कि बात या संवाद माना जाए या ना माना जाए लेकिन उसे सुना जरूर जा सके, संवाद अबाधित जारी रहना चाहिए। परिवार में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत खीझ, गुस्सा,आक्रोश प्रदर्शित करने की सुविधा होती है ऐसे में उसमें प्यार और पारस्परिक संवेदनशील संवाद कम ही होते हैं। जिस तरह परिवार में पारिवारिक सदस्य एक दूसरे से अजनबी बनकर अलग-अलग द्वीप बना लेते हैं । इस तरह लोकतांत्रिक पार्टियों भी विभिन्न विचारधाराओं के होकर अलग-अलग खेमे में बंट जाती है। व्यंग्य संग्रह इसी मूल मंत्र को लेकर आगे बढ़ा है। व्यंग्यकार स्वयं लिखते हैं कि वे बदलाव के लिए लिखना चाहते हैं । व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की 2023- 24 में जन्म शताब्दी के अवसर पर उन्हें याद करते हुए यह व्यंग्य संग्रह लिखा गया है और संभवत राजशेखर चौबे ने अपने व्यंग्य “सपने में परसाई” पर यह लिखा भी है कि वे व्यथित,वंचित व्यक्ति के साथ खड़े हैं और सामाजिक आर्थिक विद्रूपताओं पर प्रहार करना चाहते हैं। उनके कई व्यंग्यों में इसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है जैसे विमुद्रीकरण से मौद्रिकरण, गिरावट का दौर, वर्चुअल रियलिटी की रियलिटी, कर लोटस हो गए, टमाटर का औसत मूल्य आदि । यह हर राजनेता जानता है कि जितने भी व्यंग्य लिखे जाते हैं चाहे वह गद्य हो या पद्य उनका सबसे सुपाच्य भोजन नेता और आर्थिक तंत्र के चूषक जिम्मेदार व्यवसायी होते हैं इसका यह कतई मतलब न निकाला जाए कि केवल व्यंग्यकारों के निशाने पर नेता और व्यवसायी ही होते हैं बल्कि वह हर भ्रष्टाचारी अधिकारी एवं व्यक्ति होता है जो समाज के गरीब तबके के आम और वंचित व्यक्ति का शोषण करता है। व्यंग्यकार की लेखनी से कहीं-कहीं लक्षित होता है कि वे कार्ल मार्क्स के दास कैपिटल की वृष्टि-छाया या उनके वैचारिक शैडो से बाहर निकलने की छटपटाहट दिखाते हैं पर वामपंथ का प्रभाव दिखाई देता है। किसी भी संग्रह के लेखन अथवा किसी भी तरह के लेखन के लिए यह बहुत आवश्यक है कि आप उसका गहन,अध्ययन और मनन करें एवं उसे पर गहरी विचार दृष्टि पैदा करें तभी जाकर लेखकीय परिणाम अच्छे और परिणाम मूलक होते हैं। ऐसा लगता है कि लेखक बहुत शीघ्रता से शीर्ष लेखकों की अग्रिम पंक्ति में स्थान बनाना चाहते हैं एवं इसी आपाधापी में यह विष्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि व्यंग्य का आनंद तभी लिया जा सकता है कि वह पढ़ने वालों में सही और सटीक हास्य एवं गुदगुदी भी पैदा कर सके, शुष्क और बौद्धिकतावादी व्यंग्य से पाठक थोड़ा बिद्कता भी है। खासकर आम पढ़ने वाला व्यक्ति इसे समझें और संपूर्ण आनंद ले इसी उद्देश्य के साथ लिखा जाना चाहिए। यही वजह है कि परसाई आमजन के बहुत बड़े व्यंग्यकार स्थापित हुए हैं ।
श्रीलालशुक्ल जी की राग दरबारी इतनी प्रसिद्ध हुई है। मैं केवल हास्य की वकालत नहीं कर रहा हूँ । मैं इस बात को अच्छी तरह समझता हूं कि हास्य और व्यंग्य के बीच एक बारीक एवं अदृश्य सीमा होती है। राजशेखर चौबे चूंकी पूर्व में राजस्व सेवा में रहे हैं उसका भी प्रभाव उनकी रचनाओं में पड़ता है यह स्वाभाविक भी है। उनकी अन्य रचनाओं में सत्य से मुठभेड़ में उन्होंने लिखा है कि आज सत्य का स्वरूप बदल गया सत्य समाज के सामने वही स्थापित सत्य है जो मीडिया उन्हें परोस कर देता है।
कछुआ और खरगोश में वर्तमान युग की आपाधापी को दर्शाया है । ग्रह लोड का लोड में उन्होंने प्रजातंत्र की आधुनिक परिभाषा में लिख दिया प्रजातंत्र को नेता का, नेता के द्वारा और नेता के लिए शासन कहा जा सकता है और यदि विश्वास न हो तो नेता और प्रजा को वर्तमान में देखा जा सकता है। सबसे मजेदार बात उन्होंने जो लिखी है वह वर्चुअल रियलिटी की रियलिटी जिसमें गायों को हरा चश्मा पहनाकर भरमाया जाता है और उससे ज्यादा दूध प्राप्त करने की प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक तरीके से प्राप्त कर ली जाती है। इसी तरह हिंदुस्तान की जनता को भी शासन भ्रम में रखकर बहला फुसला लेते हैं। व्यंग्यकार की कथनी और करनी में ज्यादा अंतर नहीं है । उनकी सभी व्यंग्य रचनाओं का उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। व्यंगकार अपने व्यंग्य के माध्यम से पाठकों में बौद्धिक प्रभाव छोड़ने में सफल हुए हैं।व्यंग्य संपूर्ण तौर पर कहीं पूरी सादगी से और कहीं पर संपूर्ण इंटेलेख्ुएलटी के साथ धमक देतें हैं। यह व्यंग्य संग्रह संतरा गणतंत्र घोर यथार्थवादी है एवं पेशेवर अंदाज में लिखा गया है और पाठक लेखक की रचनात्मक और समाज की विसंगतियों को जिज्ञासावश खोज कर लिखने की जुगत में अन्वेषक भी दिखाई देते हैं। यह भी स्पष्ट है कि अलंकारिक शब्दों और शिल्प के अनावश्यक आकर्षण से लेखक ने अपने को मुक्त रखा है। व्यंग्यकार द्वारा सूचना संसार तथा सूचना के तकनीकी ज्ञान का सम्यक प्रयोग-उपयोग कर रचनाओं को समकालीन भी बनाया है।संतरा गणतंत्र अभिनव प्रयोग वाला व्यंग्य संग्रह है वैसे आप इसे अवश्य पढ़ें और जैसा कि लेखक ने अपनी बात में लिखा है कि आलोचना-समालोचना उनके लिए सदैव अपेक्षित है ।
संजीव ठाकुर,
रायपुर छत्तीसगढ़


Share

Check Also

कविता @ देवारी तिहार आवत हे…

Share हरियर हरियर लुगरा पहिरकेदाई बहिनी मन नाचत हेआरा पारा खोर गली मोहल्लासुवा गीत ल …

Leave a Reply