बैकुण्ठपुर,@क्या उच्च अधिकारियों ने अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को बचाने के लिए 8 साल का लंबा इंतजार किया और बिना कर्मचारियों के नाम के ही न्यायालय में चालान पेश किया?

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-रवि सिंह-
बैकुण्ठपुर,14 मार्च 2024 (घटती-घटना)। 8 साल पहले कोरिया जिले के कुछ पुलिसकर्मियों के ऊपर जबरन बिना किसी आदेश के अतिक्रमण हटाने को लेकर शिकायत हुई थी पर शिकायत पर कार्यवाही नहीं की गई थी, जिसके बाद प्रार्थी ने उच्च न्यायालय से गुहार लगाई थी जिसके बाद उच्च न्यायालय ने पुलिसकर्मियों के विरुद्ध अपराध पंजीकृत करने का आदेश जारी किया था, जिसके बाद पुलिस ने उच्च न्यायालय के आदेश के दबाव में एफआईआर तो दर्ज किया पर पुलिसकर्मियों का नाम नहीं लिखा, जबकि आदेश में नामजद एफआईआर दर्ज करना था पर ऐसा हुआ नही। अब जब सरकार बदल गई है तब यह उम्मीद लगाई जा रही है कि ऐसे पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही होगी और उनके ऊपर विभागीय जांच सहित इन्हें पद से पृथक किया जाएगा? यह सवाल बना हुआ था पर जैसे ही सत्ता बदली इस मामले की जांच अधिकारी ने अपने विभाग के पुलिसकर्मियों के बचाव करते हुए बिना पुलिसकर्मियों के बिना नाम के ही चालान को अन्य आरोपियों के नाम से दिसंबर माह में न्यायालय में पेश कर दिया और अपना पल्ला झाड़ लिया, तत्कालीन पुलिस अधीक्षक ने भी इस मामले में पुलिसकर्मियों को बचाने में अपनी अहम भूमिका निभाई और जाते-जाते इन पुलिसकर्मियों को राहत की सांस लेने का मौका दे दिया पर वहीं पीडि़ता के न्याय लिए किसी ने नहीं सोचा जिसकी झोपड़ी तोड़ने यह पुलिसकर्मी किसी के कहने पर बिना आदेश के पहुंच गए थे और उस गरीब को खूब सताया था वह वृद्ध गरीब महिला न्याय की लड़ई लड़ रही थी और इस बीच उसका निधन भी हो गया पर ऐसा लगा कि उसके निधन के बाद ही शायद उसको न्याय मिल जाए पर ऐसा होता नहीं दिखा, पुलिस वालों ने अपने पुलिसकर्मियों की गलतियों पर पर्दा डालते हुए उनके नाम को एफआईआर से लेकर चालान पेश करने तक दूर रखा और 8 साल के इंतजार के बाद चालान पेश कर अपना एक झमेला दूर कर लिया पर वहीं पीडि़ता की न्याय की लड़ाई में रसूखदार पुलिसकर्मियों को उनके जांच अधिकारी ने बचा लिया। जांच अधिकारी ने भी कहीं ना कहीं उच्च न्यायालय के आदेशों को गंभीरता से नहीं लिया और अपने कर्मचारियों को बचाने के लिए पूरा प्रयास किया। अब चालान पेश हो गया है और बताया जाता है की चालान को देखकर समझा जा सकता है की कैसे पुलिस ने पुलिस को बचाया क्योंकि जांच उनके ही पास थी अन्य कोई होता वह जेल जाता यह भी तय था बस पुलिस ने पुलिस को बचाया यह कहा जा सकता है और न्याय को केवल इसलिए हाशिए पर डाल दिया क्योंकि मामले में पुलिसकर्मी फंसते नजर आ रहे थे।
क्या एफआईआर दर्ज करने वाले उपनिरीक्षक की भी है गलती…जिन्होंने जानते हुए भी एफआईआर दर्ज नहीं की?
पूरे मामले में क्या उस उप निरीक्षक की भी गलती मानी जायेगी जो सब कुछ जानते हुए भी पुलिसकर्मियों को बचाने में जुटे रहे। जब उच्च न्यायालय का आदेश यह था पीडि़ता के आवेदन पर की संबंधित पुलिसकर्मियों जिसमे निरीक्षक सहित प्रधान आरक्षक शामिल थे के नाम से प्राथमिकी दर्ज हो और फिर जांच कर कार्यवाही किया जाए तब कैसे बिना पुलिसकर्मियों के नाम प्राथमिकी दर्ज किए ही न्यायालय में चालान पेश कर दिया गया? उप निरीक्षक ने क्या अधिकारियों के दवाब में ऐसा किया या फिर उन्होंने पुलिसकर्मी होने के नाते पुलिसकर्मियों की मदद की यह बड़ा सवाल है। वैसे माना जा रहा है की पूरे मामले में पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों का दबाव काफी था। वैसे उप निरीक्षक जिन्होंने प्राथमिकी दर्ज की या जिनके द्वारा विवेचना की गई उन्होंने न्यायालय के आदेश की अवहेलना की यह कहना गलत नहीं होगा।
क्या जांच अधिकारी को माननीय उच्च न्यायालय के आदेश की नहीं थी जानकारी?
पूरे मामले में जांच अधिकारी ने उच्च न्यायालय के आदेश की ही अवहेलना कर डाली है। जिन पुलिसकर्मियों का नाम प्राथमिकी में शामिल करने उच्च न्यायालय का निर्देश था उनका नाम चालान जब पेश हुआ प्राथमिकी में दर्ज नहीं पाया गया वैसे पूरे मामले में या तो जांच अधिकारी अनभिज्ञ थे उच्च न्यायालय के निर्देशों से या फिर उनके ऊपर काफी दबाव था?
यह है पूरा मामला
पुलिस पत्रकार पर या अन्य निर्दोषों पर बिना जांच के मामला पंजीबद्ध तो कर लेती है पर जब खुद इनके ऊपर मामला पंजीबद्ध होने की बारी आती है तो घबरा जाते हैं फिर बचाव के लिए पूरे पैतरे अजमाने लगते है एक तो इनकी शिकायत हो भी जाए तो इन्ही के अधिकारी इन्हें बचाने लगते है जब की वह भी जानते है की उनका कर्मचारी गलत व दोषी है पुलिस के खिलाफ कितनी भी शिकायत हो जाए यही वजह है कि जांच तो उसी विभाग के अधिकारी को करना है जिस वजह से उन्हें हर बार बच निकलने में सहूलियत होती है, इनके ऊपर तो कार्यवाही तब होती है जब कोई इनके पीछे पड़ जाए उच्च स्तर पर या फिर न्यायालय की शरण ले तब जाकर उसे जीत हासिल हो पाती है पर जीत के आने के बाद ही फिर उसी विभाग के कार्यालय के चक्कर लगाकर अपने चप्पल घिसने पड़ते हैं फिर भी राहत नहीं मिलती कुछ ऐसा ही मामला है कुछ सालों पहले का है जहां पर एक व्यक्ति के प्रभाव में पुलिस वाले एक महिला का घर तोड़ने व कजा दिलाने के लिए चले जाते हैं उस महिला की शिकायत पर अपराध पंजीबद्ध नहीं होता तब महिला को उच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है तब वहां पर उच्च न्यायालय मामले में संज्ञान लेते हुए अपराध पंजीबद्ध करने तो कहता है जिसके बाद 10 दिन के बाद उस मामले में अपराध पंजीबद्ध होता है पर उस पंजीबद्ध एफआईआर में पुलिसकर्मियों का नाम नहीं होता, वर्ष 2016 में एक महिला की शिकायत पर पुलिसकर्मियों ने मामला पंजीबद्ध नहीं किया तब उसने उच्च न्यायालय की शरण ली थी जिसमें उच्च न्यायालय ने 29 नवम्बर 2016 को अपराध पंजीबद्ध करने का आदेश दिया था, जिसमें नामजद अपराध पंजीबद्ध होना था पर पुलिस वाले ही जब अपराध पंजीबद्ध करते हैं तो अपने ही पुलिस वालों का नाम कैसे लिख सकते हैं बिना नाम के ही उन्होंने 9 दिसंबर 2016 को अपराध पंजीबद्ध किया,जिसमें उन्होंने पुलिसकर्मियों के नाम की जगह अज्ञात लिख दिया पर सवाल यह है कि हाईकोर्ट के आदेश में सभी के नाम दिए गए थे पर इसके बावजूद पुलिस ने नामजद अपराध दर्ज नहीं किया ना आज तक उन पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी हुई और ना ही वह पुलिसकर्मी जमानत ही लिए और ना ही विभागीय जांच ही सही से हो पाई, अब समझा जा सकता है कि पुलिसकर्मी यदि करें तो सब सही बाकी के ऊपर पुलिस टूट पड़ती है जबकि संविधान में साफ है कि पुलिसकर्मी भी यदि दोषी हैं तो उन पर भी अपराध पंजीबद्ध होना चाहिए पर अक्सर खाकी खाकी की मदद ही करता है और बचने का पूरा प्रयास करता है।


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