समीक्षा@ दिवास्वप्न अब साकार होने लगा है…

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मैं जानती हूं…आप भौतिक रूप से मेरे साथ तो नहीं, पर आपका स्नेह, दुलार व दुआएं हमेशा मेरे साथ हैं। अम्मा! आप तो यह बात अच्छे से जानती हैं कि आपकी बेटी को घर से ज्यादा विद्यालय अच्छा लगता है, बच्चों के साथ मिलकर काम करना, उन्हें नित नई-नई गतिविधियों के साथ शिक्षित करना, कविता व कहानी सुनाना खूब भाता है और आप यह भी अच्छे से जानती हैं कि आपकी तरह आपकी बेटी को भी किताबें पढ़ने में कितना आनंद आता है।
अम्मा….पता है आपको, पिछले दिनों मैंने एक गुजराती लेखक व महान शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका जी’ द्वारा लिखी,शैक्षिक साहित्य की महानतम कृति दिवास्वप्न पढ़ी। गिजुभाई जी ने अपने एक वर्ष के शैक्षिक प्रयोग के अनुभवों को उस पुस्तक में संजोया है, जो अत्यंत सराहनीय और प्रेरक हैं।
अम्मा…मैंने इस पुस्तक का बहुत नाम सुना था। मेरे एक शिक्षक साथी ने गतवर्ष इसे पढ़ने के लिए मुझे प्रेरित भी किया था,पर उन दिनों विद्यालय की कुछ व्यस्तता के कारण मैं पुस्तक तो नहीं पढ़ सकी। पर एक विचार मेरे मन के सागर में बार-बार गोता लगा रहा था कि आखिरकार लेखक ने इस पुस्तक का नाम दिवास्वप्न क्यों रखा। अब जबकि पुस्तक पढ़ ली है तो यह मेरी समझ में आया कि सच में शिक्षा पर यह प्रयोग जो लेखक द्वारा कक्षा चार के बच्चों पर किए गए और उसके फलस्वरुप जो सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए, वास्तव में दिन में स्वप्न देखने जैसा ही है। उस पर बिना डांट-फटकार लगाए, बड़ी-बड़ी आंखें फाड़ कर घूरे बगैर एवं विकृत रूप बनाकर बच्चों को डराए- धमकाए बिना और हाथ में छड़ी उठाये बिना बच्चों को वास्तविक रूप में शिक्षित व संस्कारी बना देना, सच में यह किसी दिवास्वप्न से कम तो नहीं। यह दुष्कर कार्य तो एक जादूगर ही कर सकता है। जिसे हम शिक्षक सोच भर पाते हैं, उन्होंने उसे सच कर दिखाया। कक्षा-कक्ष के वातावरण को शांत व सहज बनाये रखने के लिए गिजुभाई जी का वह अद्भुत शांति का खेल, नौनिहालों में स्वच्छता की आदत विकसित करने के उद्देश्य से कक्षा में नियमित सफाई की जांच का कार्य, बच्चों के सुर में सुर मिलाकर सहगान फिर वार्तालाप और नाटक। अहा! क्या कहना, सारे प्रयोग एक से बढ़कर एक। अम्मा….एक बात बताऊं मैं आपको। जैसे- दादी मां, हम भाई-बहनों को बचपन में राजा रानी की लुभावनी कहानियां सुनाया करती थीं और हम सब भाई-बहन दादी मां को चारों ओर घेर कर बैठ जाते थे और बड़े चाव से मन लगाकर किस्से-कहानियां सुना करते थे।ठीक वैसे ही गिजुभाई जी भी बड़े ही निराले अंदाज़ में हाव भाव और अभिनय के साथ कक्षा के बच्चों को राजा रानी की मनमोहक कहानियां सुनाया करते थे। शुरुआती तीन महीनों में तो उन्होंने कहानियों और गीतों के माध्यम से ही शिक्षण कार्य किया।
अम्मा…बच्चों के लिए कितना रोचक रहा होगा न यह सब। और तो और उन्होंने कहानी के द्वारा इतिहास जैसे नीरस विषय की शिक्षा भी दे दी। और जानती हो अम्मा, गिजुभाई जी ने विद्यार्थियों को लोकगीत,चित्रकला और अभिनय में भी पारंगत कर दिया। वे नन्हे-मुन्ने कक्षा चार के बच्चे तो स्वरचित कविताएं भी लिखते थे। बिल्कुल सपने जैसा लगता है न मां यह सब। वास्तव में शिक्षा का सही अर्थ, हम सभी शिक्षकों को गिजुभाई जी अपनी पुस्तक के माध्यम से समझा गए और सिखा गए खुली आंखों से स्वप्न देखना और उन्हें साकार करना। अम्मा… एक बात जानकर तो आपको भी आश्चर्य होगा। जानती हो अम्मा,जब मैंने गिजुभाई जी के व्याकरण के खेल को कक्षा तीन के बच्चों के साथ मिलकर खेला। मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था। बच्चे इस खेल में इतना आनंद ले रहे थे और मुझे भी बहुत मज़ा आ रहा था। पता ही नहीं चला कि कब उनके बालमन में खेल-खेल में ही कुछ ही दिनों में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण एवं क्रिया की गहरी समझ विकसित हो गई। सच में गिजुभाई जी के व्याकरण के इस खेल ने तो कमाल ही कर दिया। इस खेल की जितनी प्रशंसा की जाए उतना ही कम है। उन्होंने इतने नीरस व जटिल विषय को भी इतनी सहजता एवं सरलता से सिखा दिया। गिजुभाई जी की कुछ बातें तो मुझे बड़ी अचंभित करती हैं अम्मा। बच्चों का ज्ञान स्थाई हो, इसके लिए आसपास के क्षेत्र का भ्रमण कराना, नदियों के किनारे पर ले जाना, कक्षा में दूरबीन व टेलीस्कोप जैसे विभिन्न यंत्रों को सहायक सामग्री के रूप में इस्तेमाल करना, विद्यार्थियों को चित्रकारी की बारीकियां सिखाने के लिए चित्रकार को बुला लाना। उनके कार्य के प्रति समर्पण, त्याग, निष्ठा व लगन के भाव को प्रदर्शित करते हैं। काश! ऐसे दिव्य गुण संसार के सभी शिक्षकों के भीतर प्रकट हो पाते और दुनिया के सभी विद्यालय आनंदघर बन जाते। बच्चों के प्रति उनके हृदय में स्नेह व वात्सल्य वंदनीय है। शायद इसीलिए बच्चे उन्हें बड़े प्यार से मूछोंवाली मां कहकर संबोधित करते थे। मां…यह सब बातें उन दिनों की है, जब अपने देश पर अंग्रेजों का शासन था। इतने वर्षों बाद भी शिक्षक की बच्चों को पढ़ाने व सिखाने की वह विधा एवं तकनीक आज भी उतनी ही प्रभावशाली है। शत-शत नमन है, ऐसे महान व्यक्तित्व को जिसके चरणों में बार-बार सिर सहज ही श्रद्धा से झुक जाता है और आंखें नम हो जाती हैं। अम्मा…आशीर्वाद दें। आपकी बेटी भी गिजुभाई जी के मार्ग पर चलकर विद्यालय को आनंदघर बनाने के अपने सपने को साकार कर सके।
आरती साहू
उमरापुर तालुक,
बाराबंकी,उत्तरप्रदेश


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