लेख@ जंगलों पर छाया इंसानों का आतंक:एक अनदेखा संकट

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हाल ही में एक प्रमुख अखबार की हेडलाइन ने ध्यान खींचा—शहर में बंदरों और कुत्तों का आतंक। यह वाक्य पढ़ते ही एक गहरी असहजता महसूस हुई। शायद इसलिए नहीं कि खबर गलत थी, बल्कि इसलिए कि वह अधूरी थी। सवाल यह नहीं है कि जानवर शहरों में क्यों आ गए, बल्कि यह है कि वे जंगलों से क्यों चले आए? हम जिस आतंक की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रकृति का प्रतिवाद है—उस दोहरी मार का नतीजा जो हमने जंगलों और वन्यजीवों पर एक लंबे अरसे से चलाया है। विकास के नाम पर हमने जंगलों को काटा, नदियों को मोड़ा, और पहाड़ों को तोड़ा। वन्यजीवों के लिए न तो रहने की जगह छोड़ी, न भोजन का साधन। जब उनका प्राकृतिक निवास उजड़ गया,तब वे हमारी बस्तियों की ओर बढ़े। और अब,जब वे हमारी छतों,गलियों और पार्कों में दिखते हैं, तो हम उन्हें ‘आतंकी’ करार देते हैं। यह नजरिया न केवल नैतिक दृष्टि से अनुचित है,बल्कि हमारी नीति और प्राथमिकताओं में गहरी खामी को भी उजागर करता है। विकास और संरक्षण को एक-दूसरे के विरोधी खेमों में खड़ा कर देने का नतीजा यह है कि न तो सही मायनों में विकास हो पा रहा है,न ही प्रकृति का संतुलन बच पा रहा है।
हाल ही में एक अखबार की प्रमुख हेडलाइन पढ़ी—शहर में बंदरों और कुत्तों का आतंक। यह वाक्य महज एक खबर नहीं,बल्कि हमारे सोचने के तरीके का प्रतिबिंब था। हमने जानवरों के शहर में आने को आतंक करार दिया, लेकिन कभी यह सवाल नहीं पूछा कि वो शहर में आए ही क्यों? जब कोई बंदर किसी कॉलोनी की छत पर उछलता है, या कोई कुत्ता कूड़े के ढेर में भोजन तलाशता है, तो वह कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं होती। यह उस संकट का संकेत होता है जिसे हम—मनुष्य—ने स्वयं गढ़ा है। जंगल, जो कभी इन जीवों का घर थे, अब रियल एस्टेट की परियोजनाओं,खनन कार्यों,सड़कों और डैमों की बलि चढ़ चुके हैं। आज अगर कोई सच में आतंक फैला रहा है,तो वह है इंसानी लालच और विकास का अंधा मॉडल। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहाँ जैव विविधता की अद्भुत संपदा है। लेकिन यही भारत आज अपने ही जंगलों को खा रहा है। 2021 की फ ॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि भारत ने पिछले चार वर्षों में 1,100 वर्ग किलोमीटर से अधिक वनक्षेत्र खो दिया है। हरियाणा, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,ओडिशा जैसे राज्यों में यह गिरावट विशेष रूप से चिंताजनक रही है। वन कटान केवल पेड़ों का नुकसान नहीं है। यह पूरी एक पारिस्थितिकी व्यवस्था का ध्वंस है। जब हम पेड़ काटते हैं, हम न सिर्फ ऑक्सीजन के स्रोत मिटाते हैं, बल्कि हजारों पशु-पक्षियों के घर उजाड़ देते हैं। यही कारण है कि आज हमें गाँवों और शहरों के आसपास बाघ, हाथी, भालू और यहाँ तक कि तेंदुए भी दिखने लगे हैं।
शहरों में जानवरों की बढ़ती उपस्थिति: एक चेतावनी
बंदरों का शहरों में आना आज एक आम दृश्य बन गया है। दिल्ली, वाराणसी, जयपुर, और देहरादून जैसे शहरों में बंदरों की आबादी तेज़ी से बढ़ी है। कारण स्पष्ट हैं—कम होती हरियाली, अधिक होता कूड़ा,और बिगड़ता पारिस्थितिक संतुलन। इसी तरह,आवारा कुत्तों की संख्या भी शहरों में नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाईजेशन अनुसार भारत में लगभग 3.5 करोड़ आवारा कुत्ते हैं,और हर साल हजारों लोग कुत्तों के काटने के शिकार होते हैं। मगर यह समस्या केवल स्वास्थ्य या सुरक्षा की नहीं है; यह समस्या हमारे कुप्रबंधन और लापरवाह विकास की है। हमने कूड़ा फेंकने के तरीकों को सुधारा नहीं, सार्वजनिक पशु-नियंत्रण कार्यक्रमों को प्राथमिकता नहीं दी, और अब जब जानवर हमारी बस्तियों में दिखते हैं, तो उन्हें संकट कह कर खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश करते हैं।
मीडिया की भूमिका और भाषा का प्रभाव जब कोई अखबार लिखता है कि बंदरों का आतंक, तो वह केवल सूचना नहीं दे रहा होता, बल्कि एक धारणा गढ़ रहा होता है। यह धारणा कि जानवर आक्रमणकारी हैं, और हम पीडç¸त। मीडिया की यही भाषा यह छिपा लेती है कि असल में हम ही उनके घरों में घुसे थे,उनकी ज़मीन छीनी,और अब जब वो अपनी जगह पाने की कोशिश करते हैं,तो उन्हें दोषी ठहराते हैं। यह भाषा केवल संवेदनहीन नहीं,बल्कि खतरनाक भी है,क्योंकि इससे संरक्षण के प्रति समाज की समझ और सहानुभूति दोनों कमजोर पड़ती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार,भारत में हर साल औसतन 100 से अधिक लोग हाथियों के हमलों में मारे जाते हैं, और दर्जनों बाघ-मानव संघर्ष की घटनाएँ सामने आती हैं। मगर इन घटनाओं के पीछे की सच्चाई यह है कि वन्यजीवों का घर सिकुड़ता जा रहा है। जंगलों में भोजन और पानी की कमी उन्हें मानव बस्तियों की ओर खींचती है। कभी-कभी वे रास्ता भटक जाते हैं, तो कभी उन्हें मजबूरी में खेतों और घरों में घुसना पड़ता है। यह संघर्ष उनके लिए भी घातक है—हर साल सैकड़ों जानवर इंसानी जवाबी हिंसा में मारे जाते हैं।
क्या हो सकता है समाधान?
भारत में वर्ल्ड वाईड प्रोटेक्शन एकट और फ ॉरेस्ट कन्वर्सेशन १९80 जैसे सशक्त कानून हैं, लेकिन उनके लागू करने में अनेक समस्याएँ हैं। वन विभाग अक्सर संसाधनों और जनबल की कमी से जूझता है। इसके अलावा, जब विकास परियोजनाओं और वन्यजीव संरक्षण में टकराव होता है, तो अक्सर विकास को तरजीह दी जाती है,भले ही उसके दीर्घकालिक परिणाम विनाशकारी हों। इस संकट से उबरने के लिए केवल नीतियाँ नहीं, बल्कि सोच का परिवर्तन ज़रूरी है। कुछ संभावित उपाय इस प्रकार हैं: शहरी नियोजन में हरित क्षेत्र सुनिश्चित किया जाए—पार्क,बाग़-बगिचे, और वृक्षारोपण को केवल सजावटी पहलू नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी के हिस्से के रूप में देखा जाए। वन्यजीव गलियारे विकसित किए जाएँ —जिससे जानवरों को सुरक्षित आवागमन का रास्ता मिले। कचरा प्रबंधन को प्राथमिकता दी जाए—ताकि जानवर शहरी कूड़े पर निर्भर
न हों। मीडिया और शिक्षा में संवेदनशीलता लाई जाए— जानवरों को आतंकवादी बताने के बजाय उनके संघर्ष को समझने और सहानुभूति की भाषा अपनाई जाए। स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाए—उन्हें संरक्षण के साझेदार बनाना होगा, विरोधी नहीं।
अंतिम बात: इंसान अकेला नहीं है इस धरती पर
हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह धरती केवल हमारी नहीं है। जंगलों, नदियों, पहाड़ों, और समंदरों के साथ-साथ हर जीव-जंतु का इस पर उतना ही अधिकार है जितना हमारा। जब हम शहरों का विस्तार करते हैं, जब हम मॉल और एक्सप्रेसवे बनाते हैं, तब हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी न किसी की ज़मीन छीनी जा रही है—कभी किसी हिरन की,कभी किसी हाथी की। हम अगर प्रकृति से लड़ते रहेंगे, तो अंततः हार हमारी ही होगी—क्योंकि प्रकृति को हराया नहीं जा सकता, बस अस्थायी रूप से दबाया जा सकता है। बंदरों का आतंक एक समाचार की हेडलाइन हो सकती है, लेकिन असल हेडलाइन यह होनी चाहिए थी—जंगलों पर इंसानों का आतंक।
प्रियंका सौरभ
आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)


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