लेख @दूसरी औरत (लेख)

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शब्द बहुत छोटा सा है परंतु किसी की जिंदगी को तहस-नहस करने के लिए पर्याप्त है। माना हर रिश्ते की बुनियाद, भावनाएं ,अहसास, और मनोंदशा पर निर्भर होती है।
परंतु इंसान और जानवर के बीच फर्क बनाने के लिए ही कुछ नियम कायदे कानूनों की व्यवस्था की गई है यह व्यवस्था आम नागरिकों के लिए नहीं अपितु उनके लिए की गई है जो अक्सर करके इन मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं। आपने किसी को भी यहां जिंदगी प्रदान नहीं की है।
सिवाय अपनी संतान के। संतान को भी जन्म एक मां ने दिया है। जो कभी भी उसका अहित करना नहीं चाहती। सिर्फ चंद मिनट के सुखद एहसास के लिए किसी की जिंदगी में जहर घोलकर उसकी जिंदगी के सुखों को तहस-नहस करने से पहले यह आवश्यक सोचें की अगर आप उसकी जगह पर होते और वह यह कार्य कर रही होती तो क्या आपको उचित लगता। यह उचित और अनुचित कहने में बड़े छोटे से शब्द है पर सही मायने में उनके अर्थ को अगर समझा जाए तो शायद कोई किसी के साथ कभी कोई अहित कार्य करे ही न। इंसान जहां से खुद खड़ा होता है उस जगह से दुनिया को देखने का नजरिया उसका बिल्कुल अलग होता है। लेकिन अगर वही जब दुनिया की भीड़ में खड़ा होता है तो उसका नजरिया तुरंत ही परिवर्तित होकर कुछ और हो जाता है। यह परिवर्तन इस बात का साक्ष्य है कि आप का नजरिया पक्षपात लिए हुए हैं। पक्षपात में रहकर लिया गया कोई भी निर्णय कभी भी उचित नहीं होता । आज नहीं तो कल उसके दुष्परिणाम हमारे सामने देखने को अवश्य ही मिल जाते हैं। न जाने समाज में कितने ही रिश्तों के बीच में यह शब्द दूसरी औरत जाकर ठहर सा गया है।
चंद शब्दों में कहूं तो एहसास की कहानी, मुहब्बत की कहानी, जज्बातों की कहानी। कभी 16- 18 वर्ष की उम्र में उमड़ते जज्बात। तो कभी 40-50की परंतु दोनों ही सूरत में यह गलत है। 16- 18 वर्ष की उम्र में नासमझी
का दौर होता है। यहां यह बात कही जा सकती है कि बच्चों में समझ की कमी थी।
परंतु यही कार्य अगर 40-50 की उम्र में आने के बाद भी दोहराए जाते हैं तो वास्तविकता में कहीं ना कहीं आप इंसान होकर भी इंसान की प्रवृत्ति से हटकर कार्य कर रहे हैं। किसी के लिए किसी के मन में किसी खास भावना का उत्पन्न होना कोई गुनाह नहीं है। परंतु उन भावनाओं के मध्य विवश होकर किसी की हंसती खेलती जिंदगी की खुशियों को तबाह कर अपने लिए खुशियांँ ढूंढना गुनाह है।
मानव के भीतर मानवता का होना अति आवश्यक है। सामने वाले के लिए नहीं अपितु खुद के लिए।
एक कहावत बड़े बुजुर्ग कह गए हैं : जब तक अपना हाथ नहीं जलता तब तक हमें दर्द का एहसास नहीं होता । दूसरों का दर्द देखकर सांत्वना देना एक अलग बात होती है। उस दर्द उस तकलीफ की शायद हम में से अधिकतर लोग कल्पना भी नहीं कर सकते । जिस दर्द से कुछ परिवार की कुछ औरतें, कुछ रिश्ते आए दिन दो चार होते रहते हैं। ऐसा सुकून ऐसा मानसिक या शारीरिक सुख किस काम का जिसने किसी की जिंदगी को तहस-नहस कर दिया हो। आवश्यकता है एक बार सोचने की। क्योंकि परिवर्तन स्वयं के भीतर करना है। दुनिया को नहीं बदलना। किसी भी चीज का परिवर्तन सबसे पहले अपने भीतर आवश्यक होता है । दुनियाँ अपने आप परिवर्तित हो जाएगी।
पूनम शर्मा स्नेहिल
गोरखपुर उत्तर


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