@महात्मा ज्योतिबा फुले जयंती पर विशेष आलेख @

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ज्योतिबा फुले आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि…
समाज का सुधार सिर्फ भाषणों से,बहस से नहीं होता बल्कि यह घर से शुरू होता है और इसका रास्ता शिक्षा से होकर गुजरता है,साथ ही आंदोलन से भी क्योंकि बिना शिक्षा के मनुष्य पशु समान है लेकिन शिक्षा उसे मानिए जो आपको समाज हित में काम करने के लिए प्रेरित करे,अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस प्रदान करे,वंचितों के हकों को आवाज उठाने की हिम्मत दे और महिलाओं के पक्ष में बोलने की सोच प्रदान करे अन्यथा पढ़े-लिखे होकर भी आप अपढ़ ही माने जाएंगे और स्वार्थी भी कहलायेंगे। निश्चित रूप से 1827 में जन्में एक ऐसे पुरोधा ने यह काम करके दिखाया और ऐसी परिस्थितयों में किया,जिन हालातों में आम व्यक्ति तो क्या कोई विशेष व्यक्ति भी काम करने से हिचकता है और ऐसे महामानव थे,जिन्हें महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया गया—महात्मा ज्योतिराव फुले..फुले क्योंकि फूलों का काम करते थे और वास्तव में वही छाप उन्होंने छोड़ी ज्योतिराव फुले एक समाज सुधारक थे जो भारत में हिंदू जाति व्यवस्था को बदलना चाहते थे।आज जो लोग भारत को एक विशेष राष्ट्र बनाने के लिए जोर दे रहे हैं,उन्हें एक बार जरूर ज्योतिबा फुले को पढ़ना चाहिए अन्यथा एक विशेष राष्ट्र की कल्पना का स्वप्न अधूरा ही रहेगा?इतना ही महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार इसी महात्मा ने खोलने का प्रयास किया और महिलाओं को समानता का अधिकार दिए जाने की पहल खुद के घर से की,जब अपनी ही पत्नी को खुद ही घर में पढ़ाकर देश की पहली महिला शिक्षिका होने का गौरव प्रदान किया।महात्मा ज्योतिबा फुले गरीब मजदूरों और महिलाओं सहित सभी लोगों के लिए समानता के पक्षधर थे।वह हिंदू जाति व्यवस्था के एक मजबूत आलोचक थे,एक ऐसा साधन जिसके द्वारा लोगों को उनके जन्म के सामाजिक समूह के अनुसार बांटता हो और मानवीय अधिकारों से वंचित करता हो,उसका विरोध होना ही चाहिए। दुर्भाग्य कि वह आज भी कायम है,शायद बहुत भयावह तरीके से।फुले ने जाति व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर रहने वाले लोगों के साथ होने वाले भेदभाव,अत्याचार की निंदा की,जिसमें दलित कहलाने वाले समूह शामिल हैं। उन्होंने भारत में एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व किया जिसका उद्देश्य एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना था जिसमें कोई भी उच्च जाति के अधीन नहीं होगा। फुले ने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़ी। यह मानते हुए कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा आवश्यक है,उन्होंने लड़कियों और निचली जातियों के बच्चों के लिए स्कूल स्थापित किए।याद रहे कि इनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था।इनका परिवार फल और सब्जी की खेती करता था।वे शूद्र सामाजिक वर्ग के भीतर माली जाति से संबंधित थे,जो भारत के पारंपरिक सामाजिक वर्गों में सबसे निचला है।फुले बचपन से ही एक प्रतिभाशाली छात्र थे,लेकिन माली बच्चों के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करना असामान्य बात थी।माली परिवारों के कई अन्य बच्चों की तरह,उन्होंने कम उम्र में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और परिवार के खेत पर काम करना शुरू कर दिया। फुले के पड़ोसियों में से एक ने उनके पिता को अपने बेटे को स्कूल भेजने के लिए राजी करने में मदद की। 1840 के दशक में फुले ने पुणे में स्कॉटिश ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित एक माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाई की। फुले यहाँ के ऐतिहासिक आंदोलनों और विचारकों से प्रेरित हुए। वह अमेरिका में स्वतंत्रता और गुलामी के खिलाफ आंदोलनों के साथ-साथ बुद्ध और रहस्यवादी और कबीर के कार्यों और शिक्षाओं से भी प्रेरित थे। एक बार एक उच्च जाति के परिवार के मित्र की शादी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था।दूल्हे के रिश्तेदारों ने कथित तौर पर फुले की निचली जाति का मजाक उड़ाया,जिससे उन्हें समारोह छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस घटना ने जाति व्यवस्था के अन्याय के प्रति उनकी आँखें खोलने में मदद की,जिसके बारे में उनका तर्क था कि यह विदेशी शक्तियों द्वारा भारत में लाई गई एक विदेशी व्यवस्था थी।उन्होंने 1848 में पुणे में निचली जाति की लड़कियों के लिए एक अग्रणी स्कूल खोला,एक ऐसा समय जब भारत में किसी भी लड़की के लिए शिक्षा प्राप्त करना बेहद दुर्लभ था।उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को घर पर ही शिक्षित किया था और वह लड़कियों के स्कूल की शिक्षिका बन गईं। अगले कुछ वर्षों में,फुले ने लड़कियों के लिए और अधिक स्कूल खोले और निचली जातियों के लोगों,विशेष रूप से निम्न जाति के कहे जाने वाले बच्चों के लिए स्कूल खोला। फुले के काम को रूढç¸वादी लोगों से काफी दुश्मनी का सामना करना पड़ा,जिन्होंने उन्हें सामाजिक यथास्थिति को बाधित करने के लिए दोषी ठहराया।फिर भी,फुले और उनकी पत्नी ने सामाजिक आर्थिक और लैंगिक समानता की दिशा में अपना काम जारी रखा।फुले ने बाल विवाह का विरोध किया और विधवाओं के पुनर्विवाह के अधिकार का समर्थन किया,जिसे विशेष रूप से उच्च जाति के हिंदुओं ने अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने विधवाओं,विशेष रूप से तथाकथित उच्च जाति,जो गर्भवती हो गई थी,के लिए एक घर खोला और उनके बच्चों के लिए एक अनाथालय भी खोला। फुले और उनकी पत्नी ने बाद में इनमें से एक बच्चे को गोद ले लिया।1873 में फुले ने सामाजिक समानता को बढ़ावा देने,वंचितों और अन्य निम्न जाति के लोगों को एकजुट करने और उनका उत्थान करने तथा जाति व्यवस्था के कारण उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना की।इस संस्था ने शिक्षा के महत्व पर भी जोर दिया और लोगों को एक विशेष जाति के पुजारियों के बिना विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। फुले ने स्पष्ट किया कि सामाजिक वर्ग की परवाह किए बिना कोई भी व्यक्ति सत्यशोधक समाज में शामिल हो सकता है। फुले का एक प्राथमिक उद्देश्य उन लोगों को एकजुट करना था,जिन्होंने एक विशेष उच्च प्रधान जाति व्यवस्था के भीतर उत्पीड़न का साझा अनुभव किया था।सत्यशोधक समाज में मुख्य रूप से गैर-उच्च जातियों के लोग शामिल थे,लेकिन इसके सदस्यों में ब्राह्मणों के साथ-साथ विभिन्न धार्मिक परंपराओं के लोग भी शामिल थे। फुले ने सभी लोगों के उपयोग के लिए अपना निजी पानी का कुआँ भी खोल दिया,जो उनके स्वागत करने वाले रवैये का प्रतीक था और उन्होंने सभी सामाजिक वर्गों के लोगों को अपने घर में आमंत्रित किया। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति गुलामगिरी है,जो 1873 में प्रकाशित हुई थी। यह भारत की जाति व्यवस्था पर हमला थी,इसमें निचली जातियों के सदस्यों की स्थिति की तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका में गुलाम लोगों से की गई है,आज भी यह पुस्तक उतनी ही प्रासांगिक है,जितनी तब थी और जिसने भी यह पुस्तक नहीं पढ़ी,तो समझिए कि उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा।1888 में फुले को महात्मा की उपाधि दी गई।1890 में पुणे में उनकी मृत्यु हो गई।निश्चित रूप से आज भी यह महामानव न केवल प्रासंगिक है बल्कि हम सबके लिए प्रेरणास्रोत है।
कृष्ण कुमार निर्माण
करनाल,हरियाणा


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