
दुनियाभर में प्रतिवर्ष 8 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है, जो सही मायनों में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उपलब्धियों का जश्न मनाने वाला एक वैश्विक दिवस है। यह दिन लैंगिक समानता में तेजी लाने के लिए कार्रवाई के आह्वान का भी प्रतीक है। हालांकि चिंता का विषय यही है कि जिस ‘आधी दुनिया’ के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है, उसी आधी दुनिया को जीवन के हर मोड़ पर भेदभाव या अपराधों का सामना करना पड़ता है। यदि इसे भारत के ही संदर्भ में देखें तो शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जब ‘आधी दुनिया’ से जुड़े अपराधों के मामले देश के कोने-कोने से सामने न आते हों। होता सिर्फ यही है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम सिर्फ पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन करने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं और पुनः तभी जागते हैं, जब ऐसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है, अन्यथा ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं तो आए दिन होती ही रहती हैं।
देश में कानूनों में सख्ती, महिला सुरक्षा के नाम पर बीते कुछ वर्षों में कई तरह के कदम उठाने और समाज में ‘आधी दुनिया’ के आत्मसम्मान को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता के बावजूद आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि बलात्कार के मामले हों या छेड़छाड़ अथवा मर्यादा हनन या फिर अपहरण अथवा क्रूरता, ‘आधी दुनिया’ के प्रति अपराधों का सिलसिला थम नहीं रहा है? इसका एक बड़ा कारण तो यही है कि कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्वों पर वो कड़ी कार्रवाई नहीं हो रही है, जिसके वो हकदार हैं और इसके अभाव में हम ऐसे अपराधियों के मन में भय पैदा करने में असफल हो रहे हैं। कहना गलत नहीं होगा कि महज कानून कड़े कर देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने से रहे, जब तक उनका ईमानदारीपूर्वक कड़ाई से पालन न किया जाए। ऐसे मामलों में पुलिस-प्रशासन की भूमिका भी अनेक अवसरों पर संदिग्ध रहती है। पुलिस किस प्रकार ऐसे अनेक मामलों में पीडि़ताओं को ही परेशान करके उनके जले पर नमक छिड़कने का कार्य करती है, ऐसे उदाहरण अक्सर सामने आते रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों के मद्देनजर अपराधियों के मन में पुलिस और कानून का भय कैसे उत्पन्न होगा और कैसे महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों में कमी की उम्मीद की जाए? जरूरत इस बात की महसूस की जाने लगी है कि पुलिस को लैंगिक दृष्टि से संवदेनशील बनाया जाए ताकि पुलिस पीडि़त पक्ष को पर्याप्त संबल प्रदान करे और पीडि़ताएं अपराधियों के खिलाफ खुलकर खड़ा होने की हिम्मत जुटा सकें, साथ ही जांच एजेंसियों और न्यायिक तंत्र से भी ऐसे मामलों में तत्परता से कार्रवाई की अपेक्षा की जानी चाहिए। ऐसी घटनाओं पर अंकुश के लिए समय की मांग यही है कि सरकारें मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें कि यदि उनके क्षेत्र में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों के मामलों में कानून का अनुपालन सुनिश्चित नहीं हुआ तो उन पर सख्त कार्रवाई की जाए।
दिनदहाड़े सामने आती छेड़छाड़, अपहरण, बलात्कार या सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग के समान हैं और यह कहना असंगत नहीं होगा कि महज कड़े कानून बना देने से ही महिला उत्पीड़न की घटनाओं पर अंकुश नहीं लगने वाला। आए दिन देशभर में हो रही इस तरह की घटनाएं हमारी सभ्यता की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं। इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बलात्कार और छेड़छाड़ के आए दिन जो मामले सामने आ रहे हैं, उनमें बहुत से ऐसे भी होते हैं, जिनमें पीडि़ता के परिजन, निकट संबंधी या परिचित ही आरोपी होते हैं। दिल्ली पुलिस द्वारा जारी आंकड़ों में तो यहां तक कहा जा चुका है कि करीब 97 फीसदी मामलों में महिलाएं अपनों की ही शिकार होती हैं और यह समस्या सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं है बल्कि महिला अपराधों के मामले में पूरी दुनिया की यही तस्वीर है। जहां देश में हर 53 मिनट में एक महिला यौन शोषण की शिकार होती है और हर 28 मिनट में अपहरण का मामला सामने आता है, वहीं संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में प्रत्येक तीन में से एक महिला का कभी न कभी शारीरिक शोषण होता है। दुनिया में करीब 71 फीसदी महिलाएं शारीरिक मानसिक प्रताड़ना अथवा यौन शोषण व हिंसा की शिकार होती हैं, दक्षिण अफ्रीका में हर छह घंटे में एक महिला को उसके साथी द्वारा ही मौत के घाट उतार दिया जाता है और अमेरिका में भी इसी प्रकार कई महिलाएं हर साल अपने ही परिचितों द्वारा मार दी जाती हैं।
जहां तक पीडि़ताओं को न्याय दिलाने की बात है तो इसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग काफी समय से उठती रही है किन्तु हमारा सिस्टम कछुआ चाल से रेंग रहा है। ऐसे मामलों में कठोरता बरतने के साथ-साथ त्वरित न्याय प्रणाली की भी सख्त जरूरत है ताकि महिला अपराधों पर अंकुश लग सके। आज अगर समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद महिलाओं के प्रति अपराध और संवेदनहीनता के मामले बढ़ रहे हैं तो हमें यह जानने के प्रयास करने होंगे कि कमी हमारी शिक्षा प्रणाली में है या कारण कुछ और हैं। ऐसे कृत्यों में लिप्त रहने वाले लोगों की कुंठित मानसिकता के कारणों की पड़ताल करना भी बहुत जरूरी है, साथ ही सामाजिक मूल्यों का विकास करने के लिए विद्यालयों में नैतिक शिक्षा को लागू करना और छात्रों को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना समय की मांग है ताकि युवाओं की नकारात्मक सोच को परिवर्तित करने में मदद मिल सके,जिससे स्थिति में सुधार की उम्मीद की जा सके।
योगेश कुमार गोयल
नजफगढ़, नई दिल्ली