लेख@ प्रकृति प्रदत्त विकृत सुआकृति लेती

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पृथ्वी पर पायी जाने वाली समस्त जीव जंतु प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति के गोद में ही खेलते पलते और बढ़ते है। मनुष्य प्रकृति से बहुत सारी अपेक्षाएं रखना है और जब उनके अनुकूल प्रकृति प्रदत्त घटनाएं होती है तो व्यक्ति बहुत खुश होता है, लेकिन यदि कोई घटनाएं मनुष्य के प्रतिकूल होता है तो व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति को कोसता है। मनुष्य के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न होना विचारणीय है क्योंकि मनुष्य प्रकृति का सबसे विवेकवान प्राणी है। मनुष्य का इस प्रकार का स्वभाव स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं बल्कि एक अस्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि मनुष्य प्रकृति में रहते हुए भी प्रकृति के स्वभाव को नहीं समझ
पाता। प्रकृति का हर व्यवहार पर्यावरण और जीव जंतु के मध्य संतुलन बनाने की एक सहज प्रक्रिया है।
हम सब जानते हैं की चार वर्ष पहले प्राकृतिक विपदा के तौर पर कॉविड19 पूरे दुनिया में छाया हुआ था, फलस्वरुप मनुष्य को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा साथ में इस विपदा या महामारी के कारण हमने अपनों को भी खोया है। प्रकृति के इस विकृत स्वरूप को देखने में भले ही हमें भयंकर लगा पर पर्यावरण को संतुलित भी तो किया नदी नाले पर्यटक स्थल वन बिना कुछ किए स्वच्छ रहा। मनुष्य को इस दरम्यान पता चला की शुद्ध हवा क्या होता है और कहां से इनकी व्यवस्था किया जा सकता है फलस्वरूप धरा पर पौधा रोपण और वृक्षों के संरक्षण को बढ़ावा मिला।भारतीय कहीं ना कहीं अपने सनातन संस्कृति और सभ्यता को भूल रहे थे और पाश्चात्य सभ्यता में लीन हो रहे थे,हाथ जोड़कर अपनों से अभिवादन को विस्मित कर रहे थे। अतः प्रकृति ने सहज रूप से मनुष्य को भारतीय अभिवादन प्रक्रिया को याद दिलाया।
अभी वर्तमान में पतझड़ का दौर चल रहा है। जंगल बाग या पेड़ पौधा वीरान लगता है पर नये पत्ते आने पर पूरा जंगल बाग या पेड़ पौधा मनमोहक लगता है वृक्ष की रौनकता बढ़ जाती है।
लक्ष्मीनारायण सेन
खुटेरी गरियाबंद (छ.ग.)


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