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लेख का आरम्भ मैं एक श्लोक की पंक्ति से करता हूं… मंगलं भगवान विष्णु,मंगलं गरुड़ध्वजः, अर्थात् जिनके ध्वज में पक्षी गरुण अंकित है, ऐसे भगवान विष्णु हमारा मंगल करें। प्रत्येक देवी-देवता के वाहन में लगे ध्वज में कोई न कोई प्रतीक चिह्न अवश्य अंकित है जो आध्यात्मिक अर्थों को सहेजे हुए है। ऐसे ही महाभारतकालीन योद्धाओं के रथों में जो ध्वज लहरा रहे थे, उनमें प्रतीक चिह्न अंकित थे ताकि योद्धा दूर से पहचाने जा सकें।राजा-महाराजाओं के राज्य में भी प्रतीक चिह्न हुआ करता था जिसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में ससम्मान प्रदर्शित किया जाता था और राजा के किसी अभियान में जाने पर राजचिह्न अंकित ध्वज सम्मानपूर्वक लेकर अश्वारोही और पैदल सैनिक आगे-आगे चलते थे। वर्तमान युग में भी देशों के अपने ध्वज होते हैं जो एक रंग के या रंग-बिरंगे होते हैं और उनमें कोई चिह्न छपा होता है। शैक्षिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं, स्कूल, कालेज एवं विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थाओं, प्रदेशीय सरकारों के प्रतीक चिह्न/लोगो होते हैं। ये प्रतीक चिह्न सम्बंधित संस्थान की दृष्टि, विचार एवं उद्देश्य तथा पहचान को प्रकट करते हैं। अपने प्रतीक चिह्न के आदर्श को बनाये रखने के लिए नागरिक या कार्यालयों के कर्मचारी सदाचरण करते हैं।
पाठकों की जानकारी के लिए मैं महाभारतकालीन योद्धाओं के ध्वज और उनमें अंकित चिह्नों के बारे में लिखना उचित समझता हूं। कौरव पक्ष के वयोवृद्ध योद्धा देवव्रत भीष्म के रथ पर फहरते विशाल ध्वज पर ताड़ का ऊंचा वृक्ष और 5 तारे अंकित थे, गुरु द्रोणाचार्य के ध्वज में वेदिका, एक कटोरा और धनुष-बाण चित्रित थे। कौरव कुलगुरु कृपाचार्य के ध्वज पर गाय-बैल या सांड का चित्र था और द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के स्वर्ण सज्जित ध्वज पर उगते सूर्य की आभा सहेजे शेर की पूंछ शोभायमान थी तो हल अंकित ध्वज मद्र नरेश के रथ पर फहर रहा था। जयद्रथ की ध्वजा पर रजत वराह तो युवराज दुर्योधन के ध्वज पर फन पर जडç¸त हीरायुक्त सर्प का चिह्न था। दानवीर कर्ण के रथ पर श्वेत शंख और सोने की बनी रस्सी थी। पांडव पक्ष में युधिष्ठिर के ध्वज पर नक्षत्रयुक्त चंद्रमा, भीम के ध्वज पर चांदी से बना विशाल शेर बना था। सुंदर नकुल का झंडा निशान था स्वर्ण पीठ वाला हिरन और सहदेव का ध्वज चिह्न था चांदी का हंस। अर्जुन के कपिध्वज पर हनुमान जी स्वयं विराजमान थे, अभिमन्यु के ध्वज की पृष्ठभूमि में पीले पत्तों वाला वृक्ष बना था। वीर घटोत्कच के झंडे पर गिद्ध अंकित था तो बलराम के झंडे पर ताल वृक्ष। ऐसे ही अन्यान्य योद्धाओं के ध्वज पर विशेष चिह्न अंकित थे जो उनकी पहचान और विशिष्टता को प्रदर्शित करने वाले थे।
पाठक सोच रहे होंगे कि मैं ध्वज और उनमें अंकित चिह्नों की चर्चा क्यों कर रहा हूं। दरअसल आजकल मैं महाकुंभ प्रयागराज में कल्पवास कर रहा हूं। पौष पूर्णिमा 13 जनवरी से आरंभ हुआ कल्पवास माघ पूर्णिमा 12 फरवरी को पूर्ण होगा। कल्पवास की मास पर्यंत अवधि हेतु रहने आदि का प्रबंध प्रयागराज के तीर्थ पुरोहित करते हैं, जिन्हें सामान्यतः पंडा कहा जाता है। ये पंडे ब्राह्मण वर्ग से हैं और सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी तीर्थयात्रियों को कल्पवास करने हेतु आवास आदि की व्यवस्था करते आयें हैं। तीर्थयात्रियों द्वारा गंगा स्नान पश्चात् पूजन संकल्प और अन्य धार्मिक कर्मकांड करवाने के बाद श्रद्धापूर्वक प्राप्त दान-दक्षिणा ही पंडों की आय का एकमात्र स्रोत है। कुम्भ के आयोजन और वार्षिक माघ मेले के बाद अन्य महीनों में भी ये पंडे दूर-दूर से आने वाले अपने यजमानों के रहने एवं भोजन आदि का समुचित प्रबंध करते हैं। प्रत्येक पंड़े का देश भर में एक या कुछ जनपद निश्चित हैं और उन जनपदों के निवासी यजमान अपने सभी धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकांड केवल अपने पंडा से ही करवाते हैं। प्रत्येक पंड़ा का गंगा घाट पर एक स्थान निश्चित है जिसे उनकी भाषा में तखत कहा जाता है। जानकर आश्चर्य होगा कि प्रत्येक पंडे के तखत का एक रजिस्टर्ड नम्बर होता है, जिसे वे पोस्टर या बैनर पर अंकित करवाते हैं। यह तखत नम्बर प्रशासन द्वारा उन्हें आवंटित किया जाता है। जब मेरे मन में कल्पवास करने की प्रेरणा-इच्छा हुई तो मैंने अपने गांव बल्लान जिला बांदा के पंडा माधौप्रसाद पंडा के वंशज आशीष पंडा जी से सम्पर्क किया और मेरा पूरा प्रबंध हो गया।
जब मैं कल्पवास करने पहुंचा तो देखा कर दंग रह गया कि तम्बुओं का व्यवस्थित नगर बसा हुआ है। प्रत्येक पंडा को गंगा की रेती पर कुछ भूभाग आवंटित किया गया है जिसे टीन की चादरों की चारदीवारी से सुरक्षित कर उसके अंदर तम्बू लगाए गये हैं। इस स्थान को बाड़ा या छावनी भी कहा जाता है। प्रत्येक बाड़े में पानी की आपूर्ति हेतु नल एवं टोंटी लगे हैं, प्रत्येक तम्बू में प्रकाश हेतु विद्युत तार एवं बल्ब का प्रबंध है। मांग पर तम्बू के बाहर शौचालय भी स्थापित कर दिया जाता है। बाड़े के बाहर सैकड़ों सार्वजनिक शौचालय हैं और खाली मैदान भी पड़ा है। मैंने अपने तम्बू के पीछे एक शौचालय और नल स्थापित करवाया है। एक सुबह मैंने देखा कि इस तम्बू नगरी के नील गगन में सैंकड़ों ध्वज-पताका फहर रहे हैं जिन पर तरह-तरह के चिह्न अंकित हैं। इन झंडों पर बने चित्र आमजन के दैनिक प्रयोग की वस्तुओं से जुड़े हैं, यथा – नारियल, मछली, पीतल की कड़ाही, लोटा, घंटा, चांदी का नारियल, जटा वाला नारियल, निहाई और हथौड़ा, चौखुटा क्रास, दो लौकी, हाथ का पंजा, सूरज, लालटेन और ढाल, टेढ़ी नीम, बारहखम्भा, चरण पादुका, बरगद का पेड़, डलिया, पांच राइफल, ऊंट, घोड़ा, हाथी, रेडियों, पांच सैनिक, दीपक, पान का पत्ता सहित लाल, हरे, नीले आयताकार सादे झंडे। किसी-किसी बाड़े में झंडा निशान के साथ ही झंडे में अंकित वस्तु भी एक ऊंचे बांस पर टांग दी गयी है। इतनी तरह के झंडा निशान क्यों, मैंने अपनी जिज्ञासा लालटून का झंडा वाले आशीष पंडा के सम्मुख रखी। वे कहते हैं कि यह सदियों से पंडों की पहचान का आधार रहे हैं। जब जनता-यजमान पढ़े-लिखे नहीं होते थे तब वे संगम क्षेत्र में अपने तीर्थ पुरोहित पंडा को आसानी से पहचान सकें, इसके लिए झंडा और निशान बनाए गये थे। यह सुन मैं आश्चर्यचकित था कि तभी मैंने एक प्रश्न प्रकट किया कि ये झंडा निशान का निर्धारण कौन करता है। पास ही बैठे श्याम पंडा के पुत्र गौतम बोले कि पंडों की अपनी एक समिति है प्रयागवाल समिति। यही समिति झंडा निशान तय करती है। वास्तव में, पंडों के झंडों की यह दुनिया बहुत विशाल, रोचक, प्रेरक और परम्परा को सहेजे यजमानों के हित-कल्याण हेतु अहर्निश साधनारत है।
प्रमोद दीक्षित मलय
बांदा, उत्तरप्रदेश