
किसी देश को विकसित कब माना जाता है? यह देश की समृद्धि, उसके लोगों की खुशहाली और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी स्थिति से तय होता है। और, कोई देश कितना समृद्ध है, यह उसके ‘जीएनपी’ यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से तय होता है। ‘डीपी’ यानी कुल घरेलू उत्पाद, भुगतान संतुलन, विदेशी मुद्रा-मुद्रा भंडार, आर्थिक विकास दर, जीडीपी आदि। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार (आयात और निर्यात दोनों) की मात्रा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उसकी हिस्सेदारी, इन दोनों में उसकी विकास दर भी उसकी आर्थिक स्थिति को दर्शाती है। अर्थव्यवस्था कितनी मजबूत है और क्या उसमें अर्जित धन को बनाए रखने और लगातार बढ़ाने की क्षमता है। आर्थिक संकेतक अपने आप में बहुत वजन रखते हैं, लेकिन कुछ चीजें छिप भी जाती हैं, जैसे देश के आम आदमी की गरीबी और कठिनाई की बात। हैदराबाद स्थित ‘डीआरडीएल’ (सिक्योरिटी रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेबोरेटरी) में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने और राजन ने अपने अनुभवों पर खूब चर्चा की है और उन पर खूब सोचा है। वहाँ काम करते समय तीन व्यक्ति मेरे पास आए और वे मेरे लिए कुछ ऐसे प्रश्नों और समस्याओं के प्रतीक बन गए,
जिनके उत्तर मैं लगातार ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा था। पहला व्यक्ति विक्रांत था, जो दो बेटों और एक बेटी का पिता था। तीनों ही ग्रेजुएट थे और अच्छी नौकरी करते थे। उसी इलाके में कूप रहता था, जो तीन बेटों का पिता था। वह सिर्फ¸ एक बेटे को पढ़ा पाया और किराए के मकान में रहता था। कपिल दो बेटियों और एक बेटे का पिता था। उसकी नौकरी पार्ट टाइम थी। गरीब होने के कारण वह अपने किसी बच्चे को पढ़ा नहीं पाया। वह घर भी बदलता रहता था। क्या उसके लिए यह संभव नहीं था कि वह अपने बच्चों को असाधारण नहीं तो साधारण और औसत जीवन जिए? ताकि वे संपन्न लोग भरपूर जीवन जी सकें, ऐसे व्यवसाय से जुड़ सकें, जिससे उन्हें अच्छा स्वास्थ्य मिले, आरामदायक जीवन जीने का अवसर मिले। राष्ट्र की परिकल्पना राष्ट्र को सकारात्मक दिशा देकर और पीढç¸यों के निरंतर और लगनशील प्रयासों के आधार पर बनती है। एक पीढ़ी अपनी मेहनत का परिणाम अगली पीढ़ी को सौंपती है और वे इस मिशन को आगे बढ़ाते हैं। चूंकि हर पीढ़ी के लोगों के पास राष्ट्र के बेहतर भविष्य के अपने सपने होते हैं, अपने आदर्श होते हैं, इसलिए वे समग्र राष्ट्रीय दृष्टि में अपना योगदान देते हैं। और, यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है और राष्ट्र अपने आप ही उन्नति की सीढç¸याँ चढ़ता जाता है। विकसित भारत का यही हमारा एकमात्र सपना है। ‘प्रतिशत-आय’ केवल लोगों की औसत आय को दर्शाता है। यह यह नहीं दर्शाता कि देश के प्रत्येक नागरिक के पास कितनी संपत्ति है। यह आँकड़ा अमीर और गरीब दोनों के औसत का औसत निकालकर निकाला जाता है। ‘प्रतिशत-आय’ का यह आँकड़ा यह भी नहीं दर्शाता कि वैश्विक तुलना के लिए किसी देश या राज्य या क्षेत्र की खुशहाली एक जैसी है। आजकल एक नया मानक अपनाया जाने लगा है, क्रय शक्ति में समानता। इसके लिए कई अधिक जटिल तरीके विकसित और अपनाए गए हैं। लेकिन ये सभी मिलकर मनुष्य के दैनिक जीवन के कुछ ही पहलुओं को दर्शाते हैं। ये आंकड़े इस बात पर कोई प्रकाश नहीं डालते कि लोग अपने हासिल किए हुए जीवन स्तर को बरकरार रख पाएंगे या नहीं।लोग और विकासलोगों के जीवन से संबंधित मुद्दों की पहचान के लिए अपनाए गए मानदंड इस प्रकार हैं लोगों को किस तरह का भोजन मिलता है, भोजन की पोषण स्थिति, उनके विकास और जीवन के विभिन्न चरणों के लिए आवश्यक भोजन की उपलब्धता, औसत जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्यु दर और प्रति व्यक्ति मौतों की संख्या। मृत्यु दर, पीने के पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता, रहने की जगह की मात्रा, लोगों के रहने के प्रकार, बीमारियों का प्रकोप, उनके कारण होने वाले कष्ट, विकलांगता और गड़बड़ी, चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच, साक्षरता, स्कूल और शैक्षिक सुविधाएं, और तेजी से हो रहे
आर्थिक बदलावों और सामाजिक मांगों की निगरानी। विभिन्न स्तरों की शिक्षा की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की सुविधाएं आदि। जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए कई अन्य सुझाव भी दिए जा सकते हैं। और अगर इस संबंध में गांधीजी द्वारा सुझाए गए ‘मन’ को भी याद किया जाए और इन सुझावों में शामिल किया जाए, तो समस्या और बढ़ जाएगी। वैसे, उनका सुझाव बहुत सरल था। वे कहते थे कि देश के लिए किए गए हर काम की कसौटी यह होनी चाहिए कि क्या वह देश के सबसे गरीब और पिछड़े आदमी की आंखों से आंसू पोंछ सकता है या नहीं। उनका मानना था कि जब ऐसा दिन आएगा, तभी माना जाएगा कि हमारा देश एक समृद्ध देश बन गया है। नेहरूजी का भी सपना था कि संपूर्ण भारत सुखी और समृद्ध बने। उनका मानना था कि यह तभी संभव है, जब व्यापक असमानताएं, गरीबी, बीमारियां, अज्ञानता दूर हो और हर नागरिक को आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें, देश की प्रगति रुकी रहेगी। लेकिन, मौजूदा हालात में उनका अपेक्षाकृत आसान लक्ष्य भी हासिल होता नहीं दिख रहा था। हालांकि, आजादी की लड़ाई के दिनों में यह आसानी से संभव लग रहा था। तब ज्यादातर भारतीय लोगों के पास पास था
देश की आजादी के लिए मर मिटने और आजाद भारत में जीने की तमन्ना। आजादी के पचास साल पूरे होने पर वो पचास साल पुराना जोश, जुनून और चाहत बिल्कुल नजर नहीं आती। जब भारत को विकसित देशों की कतार में खड़ा देखने की बात उठाई जाती
है तो किसी भी भारतीय के चेहरे पर उम्मीद की चमक नहीं दिखती, जो दिखती है वो है दुख और इंसानियत से भरे चेहरे। आज ऐसा लगता है कि हम भारतीयों के मन में यह बात साफ हो गई है कि विभिन्न संकेतों से ऐसा लगता है कि उस देश के विकास की उम्मीद करना व्यर्थ है जहां के लोग लगातार प्रगति करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। जरूरी है कि हम सभी भारतीयों को न सिर्फ सुरक्षित और सुखद ‘वर्तमान’ मिले बल्कि बेहतर ‘भविष्य’ भी मिले। ऐसे विकसित भारत का सपना हम सभी को साकार करना है। रेडियो पर समाचार सुनकर पता चल गया कि दिल्ली करते थे में क्या हो रहा है। लेकिन, किसी देश की समृद्धि उसके लोगों की समृद्धि और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी स्थिति से तय होती है। और, कोई देश कितना समृद्ध है, यह उसके जीएनपी यानी उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से तय होता है। डीपी यानी कुल घरेलू उत्पाद, भुगतान संतुलन, विदेशी मुद्रा-मुद्रा भंडार, आर्थिक विकास दर, जीडीपी आदि। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार (आयात और निर्यात दोनों) की मात्रा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इसकी हिस्सेदारी, इन दोनों में इसकी विकास दर भी इसकी आर्थिक स्थिति का संकेत देती है। अर्थव्यवस्था कितनी मजबूत है और क्या इसमें अर्जित धन को बनाए रखने और लगातार बढ़ाने की क्षमता है। आर्थिक संकेतक अपने आप में बहुत वजन रखते हैं, लेकिन कुछ चीजें छिप भी जाती हैं, जैसे देश के आम आदमी की गरीबी और कठिनाई की बात तो आजादी के 77 साल बाद भी भारत में गरीबी आज भी व्याप्त है।
संजय गोस्वामी
मुंबई महाराष्ट्र