@ दृश्य एक, शिक्षा अधिकारी का कार्यालय
अच्छा, यदि तुम्हारा आग्रह ही है तो खुशी से एक साल तक अनुभव करो। प्राथमिक पाठशाला की चौथी कक्षा मैं तुम्हें सौंपता हूं यह उसका पाठ्यक्रम है। ये उसमें चलने वाली कुछ पाठ्य-पुस्तकें हैं, ये शिक्षा विभाग के छुट्टी आदि के कुछ नियम हैं।….देखो, जैसे चाहो वैसे प्रयोग करने की स्वतंत्रता तो तुम्हें है ही, इसके लिए तो तुम आए ही हो। लेकिन यह भी ध्यान में रखना कि बारहवें महीने में परीक्षा सामने आ खड़ी होगी और तुम्हारा काम परीक्षा के परिणामों से मापा जाएगा।
दृश्य दो, विद्यालय परिसर में परस्पर बातचीत करते शिक्षक गण।
सच कहता हूं, मुझे तो आप एक अजीब आदमी मालूम पड़ते हैं। मैं मानता हूं कि आपका प्रयोग सफल हुआ है। हमें विश्वास नहीं होता था कि प्राथमिक शाला की पढ़ाई में भी कुछ सुंदर परिवर्तन किये जा सकते हैं। दृश्य तीन, विद्यालय का वार्षिक सम्मेलन।
“सज्जनो! मैं नहीं जानता कि आज अपने आनंद को किस प्रकार व्यक्त करूं? आप इनकी कक्षा के इन विद्यार्थियों को देखिए। ये कितने व्यवस्थित, स्वस्थ और आनंदपूर्वक हैं। इनकी शक्ति और बुद्धि के विकास का मैं साक्षी हूं। इनके सम्बंध में बच्चों के माता-पिता को भी अपना संतोष व्यक्त करते हुए मैंने बार-बार सुना है।
उक्त तीन कथन तीन अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय और स्थितियों में प्राथमिक शिक्षा में नवल प्रयोग करने को उत्सुक-संकल्पित एक प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व के लिए कहे गए हैं जो प्राथमिक शिक्षा को आनंदमय बनाने का पक्षधर है। पहला कथन एक शिक्षा अधिकारी का है जो उस व्यक्ति को आवश्यक निर्देश देते हुए शैक्षिक प्रयोग करने की अनुमति देते हैं। दूसरा कथन व्यक्ति के सहकर्मी शिक्षकों के आपसी वार्तालाप का है और तीसरा कथन शिक्षा विभाग के डायरेक्टर साहब का है जो उस व्यक्ति के विद्यालय में आयोजित बच्चों के वार्षिक सम्मेलन में उनके शैक्षिक प्रयोगों की सफलता की सराहना करते हुए उपस्थित अभिभावकों के सम्मुख कहा गया है। पाठक मन ही मन सोच रहे होंगे कि मैने लेख के आरंभ में ही ये तीन कथन क्यों रखे और यह जिज्ञासा भी पनपी होगी कि वह प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व कौन है जो प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए आनंददायी नवाचारी प्रयोग करने को उत्सुक-आतुर एवं कटिबद्ध है। चलिए मिलाता हूं, वह महनीय व्यक्तित्व है गिरिजाशंकर भगवानदास बधेका, जिसे विश्व गिजुभाई बधेका के नाम से जानता है। शिक्षाविदों की पंक्ति में गिजुभाई ध्रुवतारे की भांति दैदीप्यमान हैं। गिजुभाई शैक्षिक विचारक के रूप में मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं क्योंकि वह शिक्षा की जमीनी वास्तविकता से न केवल परिचित हैं अपितु उसे बेहतर करने के सरल सर्वमान्य तौर-तरीके भी प्रस्तुत करते हैं। बदलाव का खुशियों भरा रास्ता दिखाते हैं।उनके विचार कागजी नहीं हैं बल्कि प्रयोग एवं अनुभव की भट्टी में तपकर निकले हैं। जीवन संघर्ष की आंच से उत्पन्न ऊष्मा से ऊर्जावान हैं। वह शैक्षिक मुद्दों पर अपनी बात कहने के लिए शब्दों का चमत्कारिक वैचारिक वितान नहीं तानते बल्कि स्वयं करके एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि वह मानते हैं कि बच्चे बड़ों को कार्य करता हुआ देखकर और स्वयं करके सीखते हैं। वास्तव में गिजुभाई उस शिक्षा साधक का नाम है जो शिक्षा में प्रचलित दकियानूसी परम्पराओं, जड़ता, सीख-उपदेशपरक रटन्त शिक्षा प्रणाली एवं संवेदनहीन नीरस उबाऊ विद्यालयीय माहौलसे जूझता है। अपने बाल हितैषी जमीनी प्रयोगों से उन्होंने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को एक नवीन दिशा देकर बालकेंद्रित, संवेदनशील एवं चेतनापरक बनाने का प्रयत्न किया है। अपने शैक्षिक अनुभवों को लक्ष्मीशंकर नामक काल्पनिक शिक्षक पात्र के द्वारा पुस्तक दिवास्वप्न में अंकित किया है। लेख के आरंभ के तीन कथन दिवास्वप्न से ही लिए गए हैं। आइए! गिजुभाई बधेका के बारे में जानते हैं।
गिजुभाई बधेका का जन्म 15 नवंबर, 1885 को चित्तल सौराष्ट्र(अब गुजरात) में हुआ था। मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके आपको धनार्जन हेतु काम करना पड़ा। इस हेतु अफ्रीका का भी प्रवास किया। भारत लौटकर कुछ समय वकालत का काम भी किया। इसी दौरान अपने बच्चे के लिए एक ऐसे स्कूल की खोज शुरू की जहां बच्चा आनंदमय परिवेश में निर्भय एवं बाधामुक्त हो ज्ञानार्जन कर सके। पर मनपसंद स्कूल न मिल पाने से निराश हुए और तत्कालीन प्रचलित शिक्षण पद्धतियों का अध्ययन कर उच्च न्यायालय के वकील गिजुभाई ने वर्ष 1916 में भावनगर के दक्षिणामूर्ति बाल मंदिर में अपने शिक्षा संबंधी प्रयोग आरंभ किए थे। बालदेवो भव उनका मंत्र था। वह विद्यालय का परिवेश बालमैत्रीपूर्ण, संवेदनशील और बच्चों के लिए आनंद में सीखने की जगह के रूप में बनाने के हिमायती थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा में भाषा, गणित, इतिहास एवं भूगोल आदि विषयों को पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-पुस्तकों में दर्ज सूचनाओं के रूप से मुक्त कर प्रयोग के आंगन की रुचिपूर्ण विषय वस्तु बना दिया। वह पाठ्य प्रश्नोत्तरों को रटने की बजाय परिवेश में उपलब्ध संसाधनों के उचित प्रयोग, अवलोकन, तर्क, तुलना, अनुमान, परस्पर सम्बंध खोजने, समझने और स्वयं की भावाभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करते हैं। वह गीत, कविता, कहानी, संगीत, नाटक, नृत्य, खेल, स्थानीय भ्रमण आदि तरीकों को शिक्षण में प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम विश्वास जगाते हैं और बच्चों के सीखने-समझने की यात्रा सुखद एवं आनंददायी बनाते हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा- 2005, शिक्षा अधिकार अधिनियम-2009 एवं नई शिक्षा नीति-2020 में गिजुभाई के शैक्षिक प्रयोग एवं विद्यालयों के परिवेश को आनंदमय बनाने की पैरवी का प्रभाव स्पष्ट दृष्टव्य है। पुस्तकालय, वाचनालय और विद्यालय एवं विद्यार्थियों की स्वच्छता को वह वरीयता देते दिखते हैं। वह बच्चों की पिटाई या सजा पर सख्त विरोध व्यक्त करते हैं। वह बच्चों को उनके कक्षा-कक्ष की साज-सज्जा की जिम्मेदारी देकर उन्हें दायित्व बोध कराते हैं। 23 जून, 1939 को उनका निधन हुआ।
यह देश का दुर्भाग्य है कि गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षाविद् को वह महत्व, सम्मान और पहचान नहीं मिल सकी और उनके शैक्षिक प्रयोगों को आगे नहीं बढ़ाया गया जिसके वह सर्वथा हकदार थे। गिजुभाई बधेका शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी काम करने वाला वह शिक्षा साधक हैं जो अपने समय से एक सदी आगे का दृश्य देख रहे थे। विभिन्न बाधाओं से टकराते और चुनौतियों से जूझते एक ऐसे आनंदमय विद्यालयीय परिवेश को साकार करने का स्वप्न संजोया, जहां बच्चे निर्भय होकर अपने ज्ञान की सर्जना कर सकें। जहां सूचनाओं के रटने के दबाव से मुक्त हो बच्चे अपने अनुभवों को परस्पर साझा कर नित नवल ज्ञान की साधना-आराधना कर सकें। जहां बच्चों को अभिव्यक्ति के स्वतंत्र मुखर अवसर हों। जहां वे प्रकृति एवं प्राणी से रिश्ता जोड़ सकें। जहां सामूहिकता, सहकार एवं समन्वय का भाव ग्रहण कर सकें। बच्चे सहृदय, संवेदनशील, जिम्मेदार एवं प्रकृतिप्रेमी बनें, ऐसा गिजुभाई चाहते थे। एक शिक्षक एवं अभिभावक के रूप में हम बच्चों के ‘दिवास्वप्न’ की दिशा में सतत बढ़ने में सहायक बनें, यही गिजुभाई बधेका के प्रति हमारी श्रद्धांजलि होगी।
प्रमोद दीक्षित मलय
बांदा,उत्तरप्रदेश
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