आज मैं बात कर रहा हूँ छठ पूजा की। यह हमारे लिए केवल एक पर्व नहीं बल्कि महापर्व है। यह त्योहार हमारे यहाँ की संस्कृति एवं संस्कार को प्रदर्शित करता है। इस महापर्व के कण-कण में जितनी शुद्धता है वह किसी अन्य पर्व में नहीं मिलती। छठी मैया सूर्यदेव की बहन और ब्रह्मदेव की मानस पुत्री हैं; जिनका आशीष हमपर सदैव बना रहता है।
इस महापर्व में सबसे मुख्य सामग्रियों में से एक सूप डोम से खरीदना छुआछूत का न सिर्फ विरोध करता है बल्कि यह हमारे यहाँ के सद्भाव को भी दर्शाता है। एक तरफ सूरज को दुनिया सिर्फ उगते हुए पूजती है और यह भाव प्रकट करती है कि दुनिया केवल आपकी उन्नति में ही साथ है और अवनति में याद तक नहीं करती, वहीं दूसरी ओर हम उगते हुए सूरज के साथ-साथ डूबते हुए सूरज को भी पूजकर यह संदेश देते हैं कि हर परिस्थिति में हम एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ते हैं।
छठ पूजा हो और शारदा सिन्हा जी के गीत न गाए जाएँ, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। छठ पूजा के कई दिनों पहले से ही उनके गीत हमारे मन को सुकून देने लगते हैं और याद दिलाते हैं कि छठ महापर्व आ रहा है। ऐसा लगता है कि स्वयं छठी मईया ने ही उन्हें इस कार्य के लिए बनाया हो। हमारे यहाँ अन्य किसी भी पर्व पर लोग घर आएँ या न आएँ, लेकिन छठ पूजा पर घर आना निश्चित है। ट्रेन में चाहे कितनी भी भीड़ हो, दिक्कत चाहे कितनी भी आए; लेकिन छठी मईया अपने भक्तों को घर बुला ही लेती हैं। चार दिनों के इस महापर्व की प्रतीक्षा हम पूरे वर्ष करते हैं। छठ पूजा के प्रथम दिन नहाय-खाय कहलाता है, जिसमें कद्दू-भात के प्रसाद का महत्व है। दूसरे दिन को लोहंडा या खरना कहते हैं, जिसमें व्रतियाँ पूरे दिन उपवास में रहकर शाम को खीर या रसिया का प्रसाद बनाकर छठी मईया से प्रार्थना कर ग्रहण करती हैं। इस रसिया का प्रसाद इस पर्व के अलावा अन्य किसी पर्व में नहीं मिलता। इसके बाद शुरू होता है छत्तीस घंटे का निर्जला उपवास। तीसरे दिन को डूबते सूर्य को अर्घ देने हम सपरिवार निकल पड़ते हैं छठ घाट की ओर। माथे पर दऊरा उठाकर घाट पहुँचाने की परंपरा हमें एक अलग उत्साह से भर देती है। चौथे दिन सूर्योदय से पहले छठ घाटों का मनोरम दृश्य देखते ही बनता है, और ऐसा लगता है कि छठ व्रतियों के साथ-साथ धरती का कण-कण प्रतीक्षा कर रहा हो सूर्यदेव के उदित होने की। सूर्यदेव को अर्घ देने का न केवल धार्मिक बल्कि बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति में भी वृद्धि होती है। सूर्यदेव को अर्घ देने के बाद अब बारी आती है छठ के महाप्रसाद की। महाप्रसाद के रूप में फलों के साथ-साथ ठेकुआ का प्रसाद पाना मन को तृप्त करता है। यह ठेकुआ हमारे लिए एक भाव है, उत्साह है, सुकून है और हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।
श्रद्धा के साथ छठी मईया से जो भी माँगा जाए, वह जरूर देती हैं। इसलिए आज यह बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और भारत के अन्य राज्यों के साथ-साथ अन्य कई देशों में भी मनाया जाने लगा है।
-चन्दन केशरी-
झाझा,जमुई, बिहार)
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