राष्ट्र से व्यक्ति है, व्यक्ति से राष्ट्र है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। राष्ट्र मात्र एक भौगोलिक इकाई नहीं; समरूप, समकक्ष, एक समान दिखने वाले कुछ जीवों का संगठन मात्र नहीं; अन्य प्रकार के इंसानों से द्वेष/प्रतिद्वंदिता/शत्रुता रखने वालों का समुदाय नहीं; वस्तुतः, राष्ट्र एक भावना है जो भिन्न परिस्थितियों में समयानुसार गोचर होती रही है। तथापि,अलग-अलग लोगों ने निज-मतानुसार राष्ट्र को परिभाषित किया है। किसी के लिए प्रकृति प्रदत्त उपहार वर्गीकरण का आधार बने तो किसी के लिए समस्त सजीव समुदाय; किसी ने मानव मात्र को प्रधान माना तो किसी ने जड़-चेतन को एक सूत्र में पिरोया; किसी ने समर्थवान का सान्निध्य चाहा तो किसी ने पीçड़त की संवेदना से साम्य स्थापित किया। समय के धरातल पर भिन्न-भिन्न मत विकसित हुए और लोगों ने (परिस्थिति की गहनता के वशीभूत) एकमत होकर राष्ट्र को विभिन्न रूपों को तत्कालीन परिवेश में स्वीकार किया। अद्य, एक आम इंसान अपनी जन्मभूमि को राष्ट्र के नाम से संबोधित करता है।
अन्य कहीं की नागरिकता लेने की बात और है, किंतु आजीविका अर्जन हेतु अपने राष्ट्र (जन्मभूमि) को त्यागकर परदेश में रहने वाले की धड़कनें चंद क्षणों के लिए तीव्र हो जाती हैं, जब वह विदेश में किसी परदेशी से अपनी जन्मभूमि की प्रशंसा सुनता है। कुछेक दशकों पहले परदेश में भारत भूमि की अनुशंसा करने वाला कदाचित ही कोई इक्का-दुक्का मिल पाता था, वह भी चंद यादों के सहारे भारत के बारे में कुछ शब्द कह दे वही बहुत होता था। वर्तमान में भारत भूमि की महत्ता किसी भी देशी-विदेशी भूखंड पर किसी परिचय के लिए अवलंबित नहीं है। भारतीयता की चिरपरिचित सुगंध चहुँओर फैल रही है। नव भारत के पुनरोद्भव के कारकों यथा राजनैतिक/कूटनीतिक सक्षमता; स्पष्टवादिता; कर्मठता; शैलेय संकल्प इत्यादि सर्वत्र विदित हैं। अपने ऐतिहासिक धरोहरों पर विश्वास करके व अपनी जड़ों को पुनः टटोलकर भारत पुनः अपने नवीनीकरण के दौर से गुजर रहा है। पुनरुत्थान की यह संजीवनी किसी भूधर से नहीं आई है, न ही किसी अन्य ग्रह/उपग्रह इसे से लाया गया है, अपितु भारतीय जनमानस ने दशक पूर्व चुनाव कर इसे अपने प्रारब्ध में प्रतिरोपित किया था।
प्रजातंत्र का महत्व इसके परिवर्तन की प्रवृत्ति के कारण है। परिवर्तन उचित हो तो पीçढ़याँ सँवर जाती हैं, अनुचित परिवर्तन सत्यानाश का कारण बनता है। भारतभूमि प्रजातंत्र की जननी है। ‘जनपदों’ ‘महाजनपदों’ के दौर में तरुणाई को प्राप्त भारतीय प्रजातंत्र के अंकुरण के प्रमाण सहस्राब्दियों पूर्व ‘सैंधव समाज’ में भी स्पष्टतः दिखाई देते हैं। आर्यों ने वर्ण व्यवस्था के सामाजिक नियमों द्वारा इसे एक मानक स्वरूप प्रदान किया। समयरेखा पर कभी मद्धिम तो कभी प्रखर रूप में अंकित प्रजातंत्र के विभिन्न चित्र सदा-सर्वदा से भारतीय जनगण को एकात्म करने के सर्वाधिक महत्वपूर्ण, चर्चित और प्रभावी उपकरण रहे हैं। प्रजातंत्र को उद्भूत करने वाली भारत भूमि ‘राष्ट्र’ को सर्वाधिक मान्य एवं लोकप्रिय रूप में परिभाषित करती है। कालांतर में अनेक कवियों और रचनाकारों ने कालांतर में अपनी क्षमतानुसार भारत भूमि का वंदन किया है। ये गौरवान्वित होने का विषय है कि हमसब भारतीय हैं।
प्रफुल्ल सिंह
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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