सनातन धर्म की अनूठी परंपरा है जिसमे परमात्मा के दो रूप हैं-माता और पिता। सत्य, ज्ञान, प्रभुता, अनन्तता, न्याय, उत्कृष्टता, परात्परता और सर्वशक्तिमानता इत्यादि जैसे गुण ईश्वर के पिता स्वरूप से सम्बन्धित हैं। जबकि सुन्दरता, प्रेम, शक्ति, प्रखरता, करुणा, अनन्यता, शाश्वतता और कृपा जैसे गुण परमात्मा के माता से सम्बन्धित हैं। संसार में परमात्मा के इन दो पक्षों की पूजा किसी न किसी रूप में सर्वत्र होती है। भारत में चैत्र मास के अलावा अभी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में नवरात्र पूजा शुरू हो रही है। ईश्वर के मातृस्वरूप की पूजा क्रमशः दुर्गा. लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में तीन-तीन दिनों की होती है। भारत में साधना के लिए यह समय अनुकूल है; क्योंकि इस समय तक वर्षा समाप्त हो जाती है और आकाश में सुन्दर तारे टिमटिमाते रहते हैं। वातावरण में शान्त. सुगन्धित और शीतल वायु का मन्द प्रवाह चलता है। इस सुन्दर प्राकृतिक परिवेश में साधक को देवीमाता की अलौकिक महिमा का स्मरण कराया जाता है। इसलिए असंख्य साधक, आत्मसाक्षात्कार के लिए आवश्यक शक्ति और कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर के माता पक्ष की पूजा इन दिनों किया करते हैं। देवीपूजा से क्लेशों के काले बादल छूट जाते हैं और कर्मों की धुँध चित्ताकाश से समाप्त हो जाती है जिससे साधक का चित्त स्वर्गिक हंस की तरह श्वेत (परिशुद्ध) हो जाता है, जिसमें ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।
नवरात्रि पूजा के लिए भारत का हर शहर, गाँव कस्वा, नगर ओर महानगर अछूता नहीं होता जहां साधकों के आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का प्रतीकात्मक चित्रण यह पर्व करता है और यह बताता है कि माता कैसे अविकसित साधकों को आसुरी और राक्षसी वृत्तियों से मुक्त कराकर उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर आसीन करने में सहायक होती है। नवरात्रि पूजा राक्षसों और असुरों (कुवृत्तियाँ) पर साधक की होने वाली विजय का भी परिचायक है। विजयदशमी के दिन ही भगवान राम ने रावण को मार कर रामराज्य की स्थापना की थी। साधक के जीवन में आसुरी वृत्तियों की अभिव्यक्ति काम, क्रोध, द्वेष, लोभ, मद, मत्सर्य, तृष्णा और अनेक प्रकार की मानसिक विकृतियों के रूप में होती है। दैवीशक्ति करुणा, उदारता, नम्रता, दानशीलता, शुद्धता, निश्चलता, सार्वभौमिक प्रेम और आत्मिक प्रबुद्धता के रूप में अभिव्यक्त होती है। नवरात्रि पूजा का उद्देश्य दैवीशक्तियों को समृद्ध करना, मन और इन्दि्रयों को नियंत्रित कर अपना आत्मकल्याण कर जीवन मार्ग पर सभी क्षेत्रों में यश-प्रतिष्टा की प्राप्ति करना है, किन्तु इस साधना में छुटपुट चूक साधक के लिए अनिष्टकारी साबित होती है, जिसके लिए तटस्थ रहकर मंगल की प्राप्ति के मार्ग में अमंगल के प्रवेश पर रोक लगानी आवश्यक है, जिसमें अज्ञानतावश कामयाबी न के बरावर देखने को मिलते है।
पूजा-पाठ, जप-होम, ध्यान आदि भी शक्ति उपासना के मुख्य अंग है; परन्तु महाविद्या के सद्गुणों के अभाव में ये व्यर्थ हैं। अतएव यथार्थ शक्ति-उपासना यही है कि पहले दिव्य गुणों को प्राप्त करे और उनसे विभूषित होकर पूजा-पाठ, स्तव, जप-ध्यान, होम आदि कर्म करे। जिनका हृदय कलुषित, भन अपवित्र, चित्त दम्भपूर्ण, भाव कुत्सित, इन्दि्रयाँ भोगपरायण तथा जिष्ठा असत्यसे दग्ध है उनके पूजा-पाठ, जाप आदि कर्म प्रायः व्यर्थ ही होते हैं। कहीं-कहीं तो उलटे हानि हो जाती है, क्योंकि भयानक दुर्गुणों को देखकर इष्टदेवता रुष्ट हो जाते हैं। लिखा है कि देवी रुष्ट होने पर समस्त अभीष्ट कामनाओं का नाश कर देती हैं। परन्तु जो सद्गुणों से विभूषित हो अहंकार और ममता त्यागकर परम दीन और आर्तभाव से श्रीआद्याशक्तिके चरणों में अपनेको समर्पण कर देते हैं उनके सब कष्टों और अभावों को मिटाकर माता उनका त्राण हरण करती हैं। श्री दुर्गा सप्तशतीकी-नारायणी-स्तुतिमें भी लिखा है- शरणागत दीनार्त्त परित्राण परायणे सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ श्रीदुर्गा सर्वत्र सबमें व्याप्त हैं और जो उन्हें इस प्रकार सबमें व्यापक रूप से वर्तमान जानते हैं, वही मय- से त्राण पाते हैं। मोक्षदात्री श्रीविद्याकी प्राप्ति के लिये इन्द्रीय-निग्रह परमावश्यक है।
माता के रूप में परमात्मा की धारणा और अधिक शान्ति तथा पूर्णता प्रदान करती है जिसका प्रमाण वर्ष में दो नवरात्रि के अलावा प्रत्येक माह गुप्तनवरात्रि आराधना भी है जिसमे साधक माँ से अति निकट होने का आभास करता है यही कारण है की हम सभी के हृदयं में माता का स्नेह एवं प्रेम की जड़ें पितृ-प्रेम से अधिक गहरी होती है। अपनी माता से कोई भी व्यक्ति कुछ गुप्त नहीं रख सकता। कभी-कभी पिता को प्रसन्न करने के लिए माता की सहायता लेनी पड़ती है। इसलिए परमात्मा की आराधना माता के रूप में करने की धारणा ईश्वरसाक्षात्कार की ओर जाने वाली सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक भावना की परिणति है, परंतु धर्मसूत्र के नियम साधक के मोक्ष के लिए है जहां उसे अपने सांसरिक जीवन में गहरी साधना, तप-चर्या का पालन कर आत्मकल्याण ओर मोक्ष का मार्ग मिल पाता है ओर वह उसे पार कर ले तो जन्ममरण के चक्र से भी मुक्त हो जाता है अन्यथा उसे बार बार जन्म लेकर मन की तृष्णाओं को भोगना होता है।
शक्ति की उपासना में मातृभाव और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रधान माना जाता है। दुर्गासप्तशती के 11 वें अध्याय के श्लोक 6 में नारायणी-स्तुति में लिखा है- विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः त्वयैकया खियः समस्ताः सकला जगस्सु । पूरित्तमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तब्धपरापरोक्तिः ॥ हे देवि ! समस्त संसारकी सब बिद्याएँ तुम्हीं से निकली हैं और सब स्ति्रयाँ तुम्हारी ही स्वरूप हैं; समस्त विश्व एक तुमसे ही पूरित है, अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार – की जाय ? शक्ति के उपासक को अपनी धर्मपत्नी के सिवा सब स्ति्रयों को जगदम्बा का रूप समझ उनमें परम पूज्य भाव चाहिये। सब स्ति्रयों को जगदम्बा मानना ही शक्ति-उपासना का यथार्थ मातृभाव है, और ऐसी भावना रखने- बाले के ऊपर शक्तिकी कृपा शीघ्र ही होती है। अतएव शक्ति-उपासनामें मन, कर्म और वचनसे ब्रह्मचर्यका पालन करनाः परमावश्यक है। अपनी स्त्रीके संग सन्तानार्थ ऋतुकालमें कर्त्तव्य बुद्धि से, पितृऋण से मुक्त होने के लिये संगम करना ब्रह्मचर्यके विरुद्ध नहीं है। सप्तशतीमें लिखा है- सर्वस्य बुद्धिरूपेण अवस्य हृदि संस्थिते। हे देवि ! तुम बुद्धिके रूपमें सर्वोके हृदयमें स्थित हो । वस्तुतः शक्ति सबके हृदयमें विराजमान हैं; अतएव सब को हृदयस्य शक्तिकी उपासना करनी चाहिये ।
आजकल उपासना के मुख्य अंग कामादि विकारों के निग्रह की अवज्ञा की जाती है और इसके विपरीत लोग जिह्वा, शिश्न और उदर-परायण होकर भोगात्मक विषयों में ही अनुरक्त हो उन्हीं में लिप्त रहते हैं तथा इसी को शक्ति-उपासना की साधना मानते हैं। दया (परोपकार), क्षान्ति (क्षमा), धृति (चैर्य), शान्ति (मन की समता), तुष्टि (सर्वदा प्रसन्न रहना), पुष्टि (शरीर और मनसे स्वस्थ रहना), श्रद्धा, विद्या, सद्बुद्धि आदि महाविद्याके गुण हैं; इनके प्राप्त होने से ही साधक विद्याशक्ति से सम्बन्ध स्थापित कर सकता है अन्यथा कदापि नहीं । इसके विपरीत जिनमें इन सद्गुणों के विरुद्ध दुर्गुण-हिंसा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भोग- लिप्सा, मत्सर, तृष्णा, आलस्य आदि वर्तमान हैं, उनको अनेकों प्रकार के पूजा-पाठ, जप-तप आदि करने पर भी शक्ति की कृपादृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती। पाश्चात्य देश- निवासियों की आजकल जो विद्या, कला-कौशल, व्यापार-वाणिज्य आदिमें विशेष रुचि देखी जाती है उसका कारण उनमें शक्ति की तुष्टि तथा कृपाकी प्राप्तिके मुख्य- साधनस्वरूप इन सद्गुणोंका कुछ-कुछ विकसित होना ही है।
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की गहराई में दिव्य माता निवास करती है। वही मूलतः आत्मशक्ति है जो ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। देवी महात्म्य में निम्नांकित शब्दों से देवता देवी की प्रार्थना करते हैं:-या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ।। उस देवी को नमस्कार है, बार-बार नमस्कार है जो सभी प्राणियों में वर्तमान विष्णुमाता कहलाती हैं। आगे देवता देवी की स्तुति इस प्रकार से करते हैं, उस देवी को पुनः पुनः नमस्कार है जो सभी प्राणियों में चेतना, बुद्धि, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षमा, जाति, लज्जा, कृपा, श्रद्धा, सुन्दरता, समृद्धि, दया, संतोष, माया और भ्रान्ति रूप में वर्तमान है। जो देवी सर्वभूतों के एकमात्र आधार और पोषक हैं उन्हें हमारा बार-बार नमस्कार है। (देवी महात्म अध्याय-5 ) उपरोक्त प्रार्थना में देवी के विभिन्न रूपों का वर्णन है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में इन सबों की अभिव्यक्ति होती है। माता अपने पुत्रों आध्यात्मिक साधकों को वाह्य और आन्तरिक रूप से मार्गदर्शन करती है। सम्पूर्ण प्रकृति उनके लिए क्रीड़ास्थल है तथा पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग सहित समस्त लोक उनकी ही महिमा को प्रकट कर रहे हैं। बाल आत्माओं को निर्देश देने का उनका तरीका भी बहुत रहस्यमय और अलौकिक है। तामसिक और आसुरी स्तर पर उठने वाली बाधाओं को विनष्ट करने के लिए वे अन्यन्त भयावह दुर्गा के रूप में प्रकट होती हैं। वे ही लौकिक, पारलौकिक और आध्यात्मिक समृद्धि प्रदान कराने वाली महालक्ष्मी हैं। सरस्वती के रूप में यही देवी हंसारूढ़ हो अत्यन्त आकर्षक और शुभ्र रूप धारण कर अमरत्व प्रदान कराने वाले ज्ञान से साधक के अन्तर्मन को प्रकाशित करती हैं।
वेदान्त और ज्ञानमार्ग की प्रतिपाद्य विद्या, जिसके द्वारा अविद्याका नाश और ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह र्भी यही आद्याशक्ति हैं। योगकी मुख्य शक्ति कुण्डलिनी भी यही आद्याशक्ति हैं। उपासना और भक्ति-मार्य की हादिनी-शक्ति तथा इष्टदेवों की अर्धाङ्गिनी- जैसे दुर्गा, सीता, राधा, लक्ष्मी, गायत्री, सरस्वती आदि- जिनकी कृपादृष्टि से इष्ट की प्राप्ति होती है वह सब यही आद्याशक्ति हैं। परन्तु जहाँ प्रकाश होता है वहाँ साथ ही तम भी होता है। प्रकाश और तम के अस्तित्व को पार्थिव विज्ञान ने भी माना है। सृष्टि के विकास- के निमित्त इन दोनों विरुद्ध पदार्थो की आवश्यकता है। इसी नियमके अनुसार आद्याशक्ति अर्थात् पराशक्ति, जो चैतन्य है, उसकी दृष्टि से अपरा प्रकृति अर्थात् नामरूपात्मक जड मूल-प्रकृति उसका दृश्य (कार्यक्षेत्रकी भाँति) हुई और इन दोनों शक्तियोंके संयोगसे सृष्टि-रचना हुई । मूल-प्रकृति योनिरूपा, त्रिगुणात्मिका, अविद्या अर्थात् अज्ञानमूलक है, और परा-प्रकृति चेतन पुरुषरूपा, सच्चिदानन्दस्वरूपिणी, विद्या और ज्ञानमूलक है।
जीवात्मा तो ईश्वर का अंश है, उसकी प्रथम उपाधि कारण-शरीर है जो आनन्दमय है। उसका परा-प्रकृतिसे सम्बन्ध है। परन्तु इसके सिवा अन्य दो उपाधियाँ भी हैं जो त्रिगुणमयी अपरा-प्रकृति के कार्य हैं उनकी संज्ञा सूक्ष्म और स्थूल शरीर है। इन दो उपाधियों में तमोगुण और रजोगुण की प्रधानता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य है विद्याशक्तिके गुणों- के आश्रयसे अविद्यान्धकारका नाश करना तथा रजोगुण और तमोगुणका निग्रह करके उनको शुद्ध सत्त्वमें परिणत कर पुनः त्रिगुणातीत अवस्था को प्राप्त करना। अतएव ज्ञान, अज्ञान, परा, अपरा दोनों प्रकृतियों की आवश्यकता है। इसीलिये पूजा में ज्ञान और अज्ञान दोनोंकी पूजा की जाती है। अतएव त्रिगुणमयी प्रकृतिः अर्थात् अविद्या-शक्ति दिव्य परा विद्या-शक्ति दोनों आवश्यक इसलिये यथार्थ शक्ति-उपासना यही है कि इस त्रिगुणमयी प्रकृतिके कार्य अथवा स्वभाव – निद्रा, आलस्य, तृष्णा (काम-वासना), भ्रान्ति (अतान), मोह, क्रोध महिषासुर), काम (रक्तबीज) आदिको महाविद्याके गुण सद्बुद्धि, बोध, लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति, क्षान्ति, लज्जा, शद्धा, कान्ति, सदृत्ति, धृति, उत्तम स्मृति, दया ( परोपकार) आदि के द्वारा निग्रह और पराभव कर उनपर विजय-लाभ करे। इससे जीवात्मा अपने उस खोये हुए आत्मराज्य को प्राप्त करेगा, जिस राज्यसे आसुरी वृत्तियों ने उसे च्युत कर दिया था। यही देवासुर संग्राम है जिसका क्षेत्र यह मानव-शरीर है। नवरात्रि पूजा का उद्देश्य दैवीशक्तियों को समृद्ध करना, मन और इन्दि्रयों को नियंत्रित करना है त्जकी आसुरी वृत्तियों से मुक्त होकर यह शरीर साधना की सिद्धि से देवत्व को उपलब्ध हो सके।
आत्माराम यादव
श्रीजगन्नाथधाम, काली मंदिर के पीछे ग्वालटोली
नर्मदापुरम मध्यप्रदेश
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