जैसे भी करके नन्हा कुणाल टेबल को सरकाते हुए दीवार तक ले गया। टेबल पर चढ़ा। गौरैये के घोंसले तक उसका हाथ भी चला गया। पता चला कि घोंसले में चार अण्डे हैं। बहुत खुशी हुई उसे। अंडों को पकड़-पकड़ कर देखा। फिर रख भी दिया। चूँकि घोंसला बैठक की दीवार पर दादाजी की तस्वीर के पीछे था। इसलिए उसे डर भी लगने लगा कि तस्वीर गिर न जाय। अपनी मम्मी को आवाज लगाई- मम्मी…! इस घोंसले में चार अण्डे हैं। आओ.. देखो न…। सफेद-मटमैले हैं। इन पर काले-भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे बने हुए हैं। सच, बहुत सुंदर हैं मम्मी।”
रहने दे बेटा… रहने दे…। कुछ मत करना। प्रिया कमरे में झट से आई- देख, वे दोनों चिडç¸या बैठे हैं। देख रहे हैं बेचारे। ये उनके ही अण्डे हैं। प्रिया ने दरवाजे पर बैठे दो गौरैये की ओर इशारा किया
टेबल से उतरते हुए कुणाल बोला- चिडि़ये के बच्चे अण्डे से बाहर आएँगे, तो फिर हम लोग इन्हें पालेंगे न मम्मी ?
हाँ, ठीक है बेटा। पर रोज-रोज टेबल पर चढ़ कर मत देखना अण्डों को। टेबल को खिसकाते हुए प्रिया ने कहा- इन चिडि़यों को अच्छा नहीं लगेगा। इन्हें अण्डे असुरक्षित लगेंगे।
हाँ, मम्मी। मैं अब कुछ नहीं करूँगा अण्डों को,और इन चिडि़यों को भी। कहते हुए कुणाल बैठक से बाहर निकला।
एक हफ्ते बाद अण्डों से चूजे निकले। सबसे पहले प्रिया ने चूजों की चींची-चींची सुनी। उसके बुलाने पर कुणाल दौड़ कर आया। फिर कुणाल का मन चूजों को देखने को हुआ। प्रिया ने कुणाल को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर ऊपर उठाया। बोली- उन्हें दूर से देखो। छूना मत। प्रिया के मना करने पर कुणाल को दूर से ही देख कर ही संतुष्ट होना पड़ा।
अब तो रोज कुणाल घोंसले पर नजर रखने लगा था। नन्हे चूजों की आवाज सुन कर उसे बहुत अच्छा लगता था। साथ ही, यह भी देखता कि चूजों के मम्मी-पापा अपनी चोंच में दबाकर उनके खाने के लिए कुछ न कुछ लाते थे।
फिर अपनी मम्मी से पूछ कर कुणाल घोंसले के नीचे एक कटोरी में पानी रखने लगा था। चूँकि खेतों में धान की फसल थी उस समय, सो उसने धान की कुछ पकी बालियाँ रस्सी से बाँधकर घोंसले के पास टाँग देता था। दोनों गौरैये बालियों में झूल-झूल कर पके दानों का खूब मजा उड़ाते थे।
देखते ही देखते पंद्रह दिन बीत गये। चूजे बड़े हो गये। अब उड़ने की उनकी इच्छा होती थी। घोंसले से वे झाँक-झाँक कर देखते थे। अपने मम्मी-पापा के अलावा कुणाल को भी पहचानने लगे थे। अब तो ऐसा भी होता था कि जैसे ही कुणाल कमरे में आता, या फिर बाहर से ही उसकी आवाज सुनाई देती, इनकी चींची-चींची शुरू हो जाती। कुणाल को भी इन नन्हे चूजों से बड़ा लगाव हो गया था; तभी तो वह घोंसले में कभी चने के दाल, कभी पॉपकॉर्न के दाने, तो कभी बिस्किट के कुछ टुकड़े डाल देता था। कुणाल को बड़ा आनंद आता था। बड़ा सुकून मिलता था। कभी-कभी चूजों की चींची-चींची सुन कर प्रिया कहा करती थी- अरे..चुप रहो न रे… कुणाल के चूजे ! हद हो गयी तुम लोगों की चींचीं… चींचीं..।
मम्मी…! आप भी न…! मेरा मजाक उड़ा रही हो। मुस्कुराते हुए कुणाल प्रिया से लिपट जाता था।
टीकेश्वर सिन्हा गब्दीवाला
घोटिया-बालोद छत्तीसगढ़
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