अम्बिकापुर/रायपुर@पूर्व सरकार के मीडिया सलाहकार रहे रुचिर गर्ग ने पत्रकारों के साथ हुई घटना पर सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की

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-विशेष संवाददाता-
अम्बिकापुर/रायपुर,26 अगस्त 2024 (घटती-घटना)।
रुचिर गर्ग किसी पहचान के मोहताज नहीं है पूर्व सरकार में मीडिया सलाहकार तो रहे ही साथ ही बड़े व प्रतिष्ठित अखबार के संपादक भी रह चुके है पत्रकारिता में उनकी पैनी नजर भी रहती है क्योंकि वह उससे जुड़े हुए व्यक्ति हैं इसीलिए वह पत्रकारों पर जब भी कोई आपत्ति विपत्ति आती है तो उस पर वह मुखर होकर लिख बोल जाते हैं। भले से ही उन पर किसी राजनेता व पार्टी से जुड़े होने का मसला है पर पत्रकारों के मामले में सिर्फ वह पत्रकार होते हैं, छत्तीसगढ़ सरकार में मौजूद पत्रकारों पर उन्होंने अपना विचार सोशल मीडिया पर साझा किया जिस विचार पर जब नजर गई तो यह देखा गया कि उन्होंने पत्रकारों से जुड़े कई गहरी बात अपने लेखनी में सोशल मीडिया पर लिखे थे, जो कहीं ना कहीं पत्रकारों के हौसला बढ़ाने वाले थे तो वही पत्रकारों के साथ बर्बरता करने वालों के लिए चुभने वाली थी। उन्होंने 12 अगस्त 2024 को यह पोस्ट सोशल मीडिया पर लिखा था और यह तब लिखा था जब बस्तर में चार पत्रकारों को फर्जी मामले में फसाया गया था उन्होंने क्या लिखा अब आप यहां से पढि़ए…बस्तर के चार पत्रकार क्रमशः बप्पी राय, धर्मेन्द्र सिंह, मनीष सिंह और निशु त्रिवेदी को आंध्र प्रदेश की पुलिस ने गाड़ी में गांजा रखने के आरोप में गिरफ्तार किया है। दो अन्य पर भी इस मामले में एफआईआर है लेकिन वो फरार बताए जा रहे हैं। बस्तर के पत्रकार उद्वेलित हैं। पत्रकार बता रहे हैं और तमाम तथ्य,परिस्थितियां इस बात की गवाह हैं कि एक स्थानीय पुलिस अफसर अजय सोनकर की इस मामले में भूमिका संदिग्ध है और यह आरोप है कि इस अफसर ने इन पत्रकारों को फंसाने के लिए इनकी गाड़ी में गांजा रखवाया। इस आरोप की जांच होनी ही चाहिए क्योंकि यदि ये सिलसिला शुरू हुआ तो थमेगा नहीं। यह दरअसल पुराना पुलिसिया हथकंडा है। सरकारें जानती हैं, अदालतें भी जानती हैं। छत्तीसगढ़ शासन ने इस पुलिस अफसर को फिलहाल लाइन अटैच कर दिया है। मुझे जानकारी है कि छत्तीसगढ़ पुलिस के आला अधिकारी इस मामले में आंध्र प्रदेश में उच्च स्तर पर संपर्क बनाए हुए हैं। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय भी पूरे मामले से अवगत हैं। दिल्ली और हैदराबाद से भी कुछ उच्च पदस्थ लोग और पत्रकार अपने स्तर पर कोशिशें कर रहे हैं पर जब तक इन कोशिशों का कोई परिणाम आता, इन पत्रकारों पर एफआईआर हो चुकी थी। खबरों के मुताबिक राहत बस इतनी है कि चालीस किलो गांजे की नहीं 15 किलो गैर व्यापारिक गांजे की एफआईआर है।

रुचिर गर्ग आगे लिखते है की दरअसल बस्तर में पत्रकार सिर्फ खतरों के बीच पत्रकारिता ही नहीं करते बल्कि पत्रकारिता से इतर ऐसी मानवीय जिम्मेदारियों का निर्वाहन भी करते रहते हैं जो उनसे अपेक्षित नहीं है। जैसे कभी सुरक्षा बलों के जवानों को नक्सलियों के कब्जे से छुड़वाना,कभी नक्सली और सुरक्षा बल या सरकार के बीच संवाद का जरिया बनना, ऐसा भी हुआ है कि नक्सल इलाके से जवान का शव लेने ग्रामीणों के साथ पत्रकार ही गए,क्योंकि वहां भरोसा सिर्फ पत्रकार पर है। न्यूज चैनल सहारा समय मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के दिनों की याद आती है जब वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बाजपाई जी एक पुलिस अफसर को माओवादियों के चंगुल से छुड़ा कर लाए थे। सहारा समय के दिल्ली स्थित न्यूजरूम, रायपुर ब्यूरो और जगदलपुर से राजेंद्र बाजपेयी ने बाकायदा पत्रकारिक मापदंडों पर ही यह अभियान छेड़ा था। दिग्गज टीवी पत्रकार और तब सहारा समय के नेशनल हेड प्रभात डबराल जी सुबह से इसे मॉनिटर कर रहे थे। यहां तक कि वो स्टूडियो में बैठाए जाने वाले मेहमानों तक के नाम डिस्कस कर रहे थे। अंततः वो पुलिस अफसर नक्सल चंगुल से छूटे।

रुचिर गर्ग आगे लिखते है की एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के एक कार्यक्रम में दिग्गज अफसरों, सुरक्षा कर्मियों और नेताओं की भीड़ में इस अफसर ने वहां मौजूद सहारा समय के लोगों को सैल्यूट तक कर दिया था…यह कहते हुए कि मैं सिर्फ सहारा समय की वजह से यहां हूं। हम सभी असहज थे पर ये सच था। सहारा समय के दिनों की ही एक और घटना। इसमें बप्पी राय और उनके साथ पत्रकार साथी मकबूल की भूमिका थी। माओवादियों ने पांच पुलिस कर्मियों का अपहरण कर लिया था। इस काम को भी पूरे व्यवस्थित तरीके से सहारा समय ने बाकायदा एक ऑपरेशन की तरह किया था। तब के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह और डीजीपी विश्व रंजन जी भी अपने अफसरों से लगातार अपडेट ले रहे थे। हालात संवेदनशील थे।
पुलिस की गुटबाजी के कारण मामला बिगड़ते-बिगड़ते बचा था और जिसकी जान खतरे में पड़ गई थी वो बप्पी राय ही था…
रुचिर गर्ग आगे लिखते है की संवेदनशील इसलिए क्योंकि तब पुलिस की गुटबाजी के कारण मामला बिगड़ते-बिगड़ते बचा था और जिसकी जान खतरे में पड़ गई थी वो बप्पी राय ही था! बप्पी मेरे लिए छोटे भाई की तरह है इसलिए ‘था’ लिख रहा हूं अन्यथा बप्पी का पत्रकारिक अनुभव पच्चीस साल से कम नहीं है। जब यह पता चला कि बप्पी की जिंदगी खतरे में है और साथ ही उन पांच जवानों की भी,तो मैंने चिंता के साथ मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को इस बात से अवगत कराया और उन्होंने बिना एक पल गंवाए अफसरों को निर्देश दिए थे। यह दो चार दिनों का अभियान था। पहली चुनौती उस नक्सली शिविर तक पहुंचने की थी जहां सिपाही बंधक थे। पूरी कहानी लंबी है और उसके लिए बप्पी को भी सामने बैठना होगा। लेकिन जब पांचों जवान नक्सलियों के कब्जे से छूटे तो बप्पी राय हमारा हीरो था और हमने चैन की सांस ली। आज बप्पी के साथ खड़े बस्तर के पत्रकारों में एक राजा राठौर हैं। राजा ने कनाडा से भ्रमण पर निकले एक साइक्लिस्ट को नक्सल कब्जे से छुड़वाया था राजा नवभारत के संवाददाता हैं। तब नवभारत में फ्रंट पेज पर यह लीड खबर थी। ऐसे ना जाने कितने अवसर होंगे जब बस्तर के पत्रकारों ने जान हथेली पर रख कर पत्रकारिता की है।

रुचिर गर्ग आगे लिखते है की गणेश मिश्रा निजी काम से कहीं जा रहे थे और नक्सल-पुलिस क्रॉस फायरिंग में फंस गए। सब छोड़ कर घटना स्थल से रिपोर्ट कर रहे थे, तस्वीरें ले रहे थे। उनके पास वहां से बच निकलने का अवसर था। लेकिन उनके लिए बड़ा अवसर उस घटना की आंखों देखी रिपोर्टिंग था। हमने नई दुनिया में प्रथम पृष्ठ पर अपने ही संवाददाता गणेश मिश्र का इंटरव्यू छापा था। जगदलपुर के साथी पत्रकार रजत बाजपेयी ने भी इसी तरह नक्सल-पुलिस गोलियों के बीच रिपोर्टिंग की थी। चर्चित झीरम हमले में जगदलपुर के टीवी पत्रकार आईबीसी 24 के नरेश मिश्रा की रिपोर्टिंग जो दुनिया भर में छाई थी, कोई कैसे भूल सकता है। पुलिस और नक्सलियों के बीच क्रॉस फायरिंग में बस्तर के पत्रकारों के फंसने की कई घटनाएं है। ये न तो कॉन्फि्लक्ट जोन में रिपोर्टिंग का प्रशिक्षण प्राप्त पत्रकार हैं ना बुलेट प्रूफ जैकेट पहनकर एंबेडेड जर्नलिस्ट सा काम कर रहे होते हैं। ये सब जुनूनी हैं। ये कुछ बिखरी-बिखरी यादें हैं। ऐसे किस्सों का ढेर है। हर रोज ऐसे किस्से हैं। इनमें सुरक्षा बलों की प्रताड़ना के ढेर सारे मामलों से लेकर नक्सली गोलियों का निशाना बने पत्रकारों की कहानियां भी हैं। छत्तीसगढ़/बस्तर की पत्रकारिता के इन नायकों को कम सराहना मिल पाती है। हकीकत यह है कि अक्सर बस्तर के पत्रकार रायपुर से दिल्ली और न्यूयॉर्क तक के बड़े पत्रकारों के सोर्स बन कर रह जाते हैं !

रुचिर गर्ग आगे लिखते है इंडियन एक्सपेस के राज्य संवाददाता आशुतोष भरद्वाज ने बस्तर की रिपोर्टिंग करते हुए चप्पा-चप्पा छाना था और वो बस्तर के पत्रकारों की चिंताओं से और वहां पत्रकारिता की चुनौतियों से खूब परिचित हैं। ऐसा नहीं है कि इन पत्रकारों में काली भेड़ें नहीं है या इनमें से किसी से कभी कोई चूक हुई ही न हो लेकिन जिसे महसूस करने की जरूरत है वो ये बात है कि ये पत्रकार कॉन्फि्लक्ट जोन में रिपोर्टिंग कर रहे हैं, न्यूनतम सुविधाओं और न्यूनतम पारिश्रमिक/अल्प वेतन के साथ…अगर कॉन्फि्लक्ट जोन में रह कर पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों के साथ खड़े नहीं हुआ गया तो कल तकलीफ होगी। ये सवाल केवल बस्तर की पत्रकारिता का ही नहीं है। ये पत्रकार अपनी सीधी जिम्मेदारियों से इतर कुछ करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि ये शांति कर्मी हैं,सिर्फ इसलिए कि ये संसदीय लोकतंत्र के भी हिमायती हैं। और ऐसा नहीं है कि बस्तर के पत्रकारों ने सत्ता विरोधी पत्रकारिता करने से किनारा किया हो या बस्तर में बस नक्सल पुलिस पत्रकारिता ही हो रही है! स्मृति शेष किरीट दोषी जी से लेकर आजतक बेहतरीन पत्रकारिता के ढेरों उदाहरण हैं। आज अगर बप्पी राय और बाकी के तीन पत्रकार साथियों को फर्जी मामले में सजा होती है तो उनके हौसले टूटेंगे। अच्छा है कि बस्तर के सारे पत्रकार अपने साथियों के साथ खड़े हैं। सुरेश महापात्र से लेकर तमाम पत्रकार लिख रहे हैं,बोल रहे हैं। मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर यह भावुक करने वाली खबर है कि बप्पी ने पुलिस कस्टडी से मेरे लिए यह संदेश भेजा है कि भैया से कहना मैं गलत नहीं हूं । बस्तर की सल्फी, नदी,पहाड़,झरनों और संगीत पर फिर कभी लिखा जा सकता है। आज तो कॉन्फि्लक्ट जोन में एक पुलिस अफसर की साजिश का शिकार पत्रकारों के साथ खड़े होने का समय है। दिल्ली तक तो यह खतरा देर से या थोड़ा कम ताप के साथ पहुंचेगा पर जहां तक भी पहुंचता हो इसका विरोध करना चाहिए।

रुचिर गर्ग ने बस्तर के मामले मे वहां के पत्रकारों के मामले मे तो खुलकर अपने विचार सोशल मीडिया पर रखे,बस्तर के पत्रकारों को लेकर उनके साथ जो षड्यंत्र हालिया घटित हुआ उसको लेकर उन्होंने काफी कुछ बात सार्वजनिक रूप से जाहिर की लेकिन सरगुजा अंचल में भी पत्रकारों अखबारों के साथ गलत हुआ जो सत्य की लड़ाई लड़ने के कारण हुआ उसको लेकर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। आखिर उन्होंने क्यों सरगुजा के पत्रकारों सहित समाचार पत्रों से खुद को अलग किया यह बड़ा सवाल है। क्या सरगुजा के पत्रकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ उनकी नजर में नहीं या फिर सरगुजा के मामले से अनभिज्ञ है सरगुजा के पत्रकारों को भी रुचिर गर्ग जी के साथ की जरूरत है ताकि उन्हें भी कमियों को दिखाने का हौसला मिल सके जैसे उन्होंने बस्तर के पत्रकारों को हौसला दिलाया।

पूर्व मुख्यमंत्री या वर्तमान मुख्यमंत्री यदि दोनो के मीडिया सलाहकारों की बात की जाए तो दोनो ही पत्रकारों के मामले में खुलकर बात सामने नहीं रख पा रहे हैं। वैसे पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी विडंबना यह है की मुख्यमंत्री के यहां मीडिया सलाहकार बने पत्रकार मंत्रियों विधायकों के यहां मिडिया सलाहकार बने पत्रकार भी अपने उन पत्रकार साथियों के लिए कुछ नहीं कर पा रहे या उनके लिए कुछ नहीं कह पा रहे जो सत्य प्रकाशित करने के कारण सरकार के हाशिए पर हैं सरकार से प्रताडि़त हैं। ऐसे पत्रकार अपनी सुविधा बढ़ाने में लगे हैं संसाधन जुटाने में लगे हैं जिससे सरकार जाने के बाद वह चैन से जीवन बिता सकें। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर सरकार को आइना दिखाना उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए छोड़ दिया और तभी से पत्रकार साथियों को भी उन्होंने भुला दिया।

मुख्यमंत्री के पास मीडिया सलाहकारों के नाम पर कई लोग काम करते हैं और ज्यादातर लोग पत्रकारिता से जुड़े लोग होते हैं। पूर्व या वर्तमान मुख्यमंत्री की बात की जाए तो सवाल उठता है क्या ऐसे लोग उन्हें उचित सलाह नहीं दे पा रहे हैं?


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