@ अखबार में ना छपे कमियां क्या इस वजह से मंत्री जी ने अखबार का रुकवाया शासकीय विज्ञापन?
@ मंत्री जी अपनी कमियो को दूर करने के बजाए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दबाने का क्यों कर रहे प्रयास?
@ क्या शासकीय विज्ञापन बिना अखबार नहीं चलेगा मंत्री जी…क्या यही सोच चुके है मंत्री?
@ बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां भी सुभान अल्लाह कुछ ऐसा ही है कांग्रेस-बीजेपी का हाल…आलोचना पचाने में दोनों असमर्थ…
@ कलेक्टर नाराज,एसपी नाराज और नाराज विधायक मंत्री…नाराजगी की वजह सिर्फ अपनी कमियों को ना पचा पाना…
@ उच्च अधिकारियों के कान भरने में निचले स्तर के कर्मचारी क्यों होते हैं माहिर?
@ क्या उच्च अधिकारी सही और गलत में फर्क नहीं कर पाते..जिस वजह से निचले स्तर के कर्मचारी उनके कान भरने में सफल हो जाते हैं?
संपादकीय@ राजनीति के बदलते परिवेश में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का स्थान खत्म होता दिख रहा,इसकी वजह सिर्फ है सत्ता का दुरुपयोग,आजादी से लेकर आज तक कई बार सत्ता परिवर्तन देखने को मिला, जिसमें लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जो की पत्रकारिता है जिसकी की भूमिका अहम रही, पत्रकारिता का उद्देश्य हमेशा ही लोकतंत्र को संतुलित करने का होता रहा है, यही वजह थी कि पत्रकारिता में सिर्फ कमियों का प्रकाशन हुआ करता था ना कि पत्रकार कोई कार्यवाही करता था, लेकिन पत्रकार के बताए गए कमियों पर संज्ञान जरूर लिया जाता था,पर आज के परिवेश में कमियों को दिखाने वाले पत्रकारों व संपादकों की खैर नहीं,कमी दिखाने पर कभी कलेक्टर नाराज तो एसपी नाराज और तो कभी नाराज सत्ता दल के विधायक मंत्री है और वजह सिर्फ उनकी कमियों को खबरों के माध्यम से उनके सामने रखने मात्र से पत्रकार संपादक व अखबार के प्रति उनकी नाराजगी और द्वेष की भावना पनप रही है, इसके पीछे की एक मुख्य वजह यह भी है इनका कच्चे आँख कान का होना, क्योंकि यह आँख कान के कितने कच्चे हो चुके हैं कि इन्हें इनकी कमियां दिखाने व बताने पर इनके लोग ही उन्हें उनकी कमियां देखने नहीं देते, उन्हें सिर्फ पत्रकारों के प्रति भड़काते हैं और उन्हें यह बताते हैं कि आप तो कुछ भी कर सकते हैं, आप पत्रकार पर अपराध भी पंजीकृत करा सकते हैं, पत्रकार को जेल भी भेज सकते हैं, आर्धिक नुकसान के लिए अखबार का सरकारी विज्ञापन रोक सकते है सब कुछ आपके हाथ में है, आप क्यों यह सब नहीं करते। कुछ ऐसा ही प्रचलन इस समय देखने को और सुनने को मिल रहा है, सरकार किसी भी पार्टी की बने उदाहरण के तौर पर कई है जो किसी से छुपा नहीं है। कमियों को ना तो बड़े अधिकारी पचा पा रहे हैं और ना ही सत्ता पक्ष के विधायक व मंत्री बचा पा रहे हैं और कमी में सुधार लाने के बजाए कमियों का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं जो कहीं ना कहीं इन्हें आगामी चुनाव में नुकसान ही पहुंचाएगा साथ की बीते लोकसाभ में इसका नुकसान देखने को भी मिला और आगे भी नुकसान तो सिर्फ जनप्रतिनिधियों का होगा अधिकारियों के तो दोनों हाथों में लड्डू है। ब्यूरोक्रेसी में शासन भी जनप्रतिनिधियों का गुलाम बना हुआ है जनप्रतिनिधि जैसा कहेंगे प्रशासन शासन व्यवस्था वैसा चलेगा सही गलत का फैसला लेने का अधिकार उनके पास भी नहीं रहा? सारे अधिकार निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के हाथ में आ गया है यही वजह है कि उनके मनमानी जनता का आशीर्वाद मिलते ही बढ़ जाती है,जनता भी
मतदान के समय अपना महत्वपूर्ण मत देकर एक मजबूत लोकतंत्र की कल्पना करती है पर वह मजबूत लोकतंत्र जनता के लिए 5 साल के लिए सबक बन जाता है, इस समय हम मौजूदा भाजपा की बनी छत्तीसगढ़ सरकार की बात कर रहे हैं जिसके मंत्री उनकी कमियों की खबर प्रकाशित होने से घबरा गए और घबराहट में अखबार पर दबाव बनाने का एक नया तरीका निकाल लिया वह तरीका है शासकीय विज्ञापन रोककर आर्थिक क्षति देने का, लगातार एक मंत्री जी की खबर उनकी कमियों के प्रकाशित हो रही जिसके बाद मंत्री जी के मौखिक आदेश पर तुगलकी फरमान जारी हो गया वह फरमान था जनसंपर्क विभाग के संचनालय आयुक्त का वह भी मौखिक जिसमें दैनिक घटती-घटना का बिना कोई नोटिस जारी किए शासकीय विज्ञापन रोका गया ताकि कर्मियों की खबर प्रकाशित न हो सके या फिर ना की जाए? इसके विरूद्ध कलमबंद अभियान की शुरू आत हो रही है, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के विभाग जनसंपर्क के द्वारा स्वास्थ्य मंत्री श्री श्यामबिहारी जायसवाल के विभाग के संबंधित समाचारों के प्रकाशन पर जनसंपर्क संचनालय के आयुक्त सह संचालक आईपीएस श्री मयंक श्रीवास्तव के मौखिक आदेश पर घटती-घटना के शासकीय विज्ञापन पर रोक लगाकर दबाव बनाने से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के मूलभूत हक पर कुठाराघात के विरूद्ध कलमबंद अभियान की शुरुआत होगी जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के लिए काला दिवस जैसा होगा है?
@क्या चौथे स्तंभ की जरूरत ही नहीं है?
ये बात बिल्कुल सही है कि मीडिया देश की ज़रुरत है, बिना इसके हम स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं कर सकते हैं, संपादक,मालिक और पत्रकार,सभी एक ढर्रे पर चल रहे हैं,सभी बदलाव की बात करते हैं,मगर कोई बदलना ही नहीं चाहता है, देश का स्वघोषित चौथा स्तंभ डगमगा रहा है,अपने विचारों से, अपने कर्तव्यों से बचा लोज्अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है यह कहना गलत नहीं होगा क्योंकि पहले के तीन स्तंभ भी चौथे स्तंभ के लिए गंभीर नहीं है। उन्हें लगता है कि चौथे स्तंभ की जरूरत ही नहीं है? हम सब इस देश के आम नागरिक हैं मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी पत्रकारिता क्षेत्र में कभी रुचि होगी पर अचानक समय के साथ रुचि बढ़ी और लोगों के लिए उनकी आवाज बनना अच्छा लगने लगा पर नहीं पता था कि उनकी आवाज बनना खुद के लिए कठिन हो जाएगा,आवाज भले ही हम दूसरे की बन रहे हैं पर समस्या खुद के लिए खड़ी हो रही है? क्योंकि जिनके लिए आवाज बन रहा हूं वह उस आवाज को बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहे हैं, पत्रकारिता की कोई पढ़ाई नहीं की पर काम करते-करते अनुभव होता गया, पत्रकारिता क्या है उसका उद्देश्य क्या है यह काम करते-करते ही समझ आया और यह भी समझ आया की चौथे स्तंभ की जरूरत ही नहीं है? और यह भी समझ आया की पत्रकारिता करना कठिन है।
@जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया ख़राब हो जाये,तो वह अपनी आन-बान-शान गंवा देता है
140 करोड़ की आबादी होने के कारण देश में कई समस्याएं हैं, जो कुंडली मार कर बैठी हुई हैं, इन सबसे निपटने के लिए सरकार प्रयास कर रही होगी, हम एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं, जहां हम अपनी पसंद की सरकार चुनते हैं, सरकार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की मदद से जनता के बीच में काम करती है, इन्हें देश का आधारभूत खंभा भी कहते हैं, हालांकि, समाज में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, वह जनता और सरकार के बीच एक पुलिया का काम करती है, इस कारण मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, समाज में मीडिया की भूमिका पर बात करने से पहले हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया क्या है? मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, जो टी.वी. शो हम देखते हैं, संगीत जो हम रेडियो पर सुनते हैं, पत्र एवं पत्रिकाएं जो हम रोज पढ़ते हैं,यह हमारे चारों ओर यह मौजूद होता है,तो निश्चित सी बात है इसका प्रभाव भी समाज के ऊपर पड़ेगा ही, लोकतंत्र के चार स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका,न्यायपालिका और पत्रकारिता हैं, स्वाभाविक-सी बात है कि जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया ख़राब हो जाये, तो वह अपनी आन-बान-शान गंवा देता है, मीडिया की महत्ता को समझाते हुए अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अख़बार और सरकार में से किसी एक को चुनना है, तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अख़बारों का अस्तित्व अवश्य रहे।
@कर्मियों की खबर ना छपी तो क्या छापे?
क्या छापें माननीय मुख्यमंत्री जी? क्या छापें स्वास्थ्य मंत्री ती? क्यां छापें आयुक्त सहसंचालक आईपीएस मयंक
श्रीवास्तव जी? देश के माननीय प्रधानमंत्री से भी सवाल क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध छत्तीसगढ़ की प्रदेश सरकार के खिलाफ समाचार लिखना है अपराध?क्या भ्रष्टाचार का मामला वहीं होगा दर्ज जहां होगी भाजपा से इतर दल की सरकार? क्या भाजपा के भ्रष्टाचारी नेता इसलिए हैं पाक साफ क्योंकि वह हैं भाजपा के पदाधिकारी?
@क्या समाचार पत्र राजनीतिज्ञों और अन्य सत्ताधारियों का सशक्त उपकरण बन गया है? निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनमाना प्रयोग…सभी अपने अधिकारों की सीमा लांघते हैं क्यों?
हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है, याद किजिए वो दिन जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने के लिए एकमात्र साधन अख़बार ही था, विश्व में अमेरिका और कई पश्चिमी देश ऐसे हैं, जहां पत्रकारिता स्वतंत्र है, भारत में भी प्रेस की अपनी भूमिका निभा रही है, हालांकि, अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में प्रेस के लिए कोई अलग से कानून नहीं हैं, हिन्दुस्तान में एक आम नागरिक को जो अधिकार दिया गया है, वही अधिकार प्रेस को भी दिया गया है, आर्टिकल 19 (1) (ए) के अनुसार, हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है, मीडिया को भी इसी दायरे में रखा गया है, हम आज जिस मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं, वो सरकार और मीडिया है, सरकार के बिना मीडिया अधूरी है, और मीडिया के बिना सरकार, देश की समस्याओं को अख़बार या टीवी के माध्यम से मीडिया सरकार तक अपनी बात पहुंचाती है, देखा जाए, तो प्रेस की भूमिका जनप्रतिनिधि की होती है, कई बार ये प्रतिनिधि सीमा को लांघ जाते हैं, नाजी नेताओं ने ठीक ही कहा है कि यदि झूठ को दस या बीस बार बोला जाए, तो वह सच बन जाता है, समाचार पत्रों के संदर्भ में यह कथन सही उतरता है, आज समाचार पत्र राजनीतिज्ञों और अन्य सत्ताधारियों का सशक्त उपकरण बन गया है, वे अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका मनमाना प्रयोग करते हैं, सभी अपने अधिकारों की सीमा लांघते हैं मगर क्यों?
@मीडिया का काम एक निगरानीकर्ता की तरह होता है
देश में सभी परियोजनाओं को जनता तक पहुंचाने का काम कार्यपालिका का होता है, विधायिका का काम जनता के लिए उन योजनाओं का बनाना होता है, देश में कानून-व्यवस्था और एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण के लिए न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, मीडिया का काम एक निगरानी की तरह होता है, कहीं भी गड़बड़ी होती है, उसे तुरंत प्रकाश में लाता है मिडिया, कभी-कभी न्यायपालिका भी सरकार के कामों पर कमेंट या सवाल उठाती है, जिसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं, विधायिका और कार्यपालिका तो एक-दूसरे के पूरक होते ही हैं,मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना, लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे!
@किसी ने शायद ठीक ही कहा है जब तोप मुकाबिल हो,तो अखबार निकालो…आज के समय में अखबार निकालने वालों को तोप से उड़ाने के प्रयास से भी गुरेज नहीं
कभी अकबर इलाहाबादी ने कहा था की जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो यह उन्होंने अखबार की ताकत बताने की लिए कहा था लेकिन आज अखबार निकालने वालों को तोप से उड़ाने से भी गुरेज नहीं किया जाता है। सच से इतना परहेज हो गया है की सच प्रकाशन के बाद पत्रकारों के प्रति अपराध बढ़ता जा रहा है अनैतिक अवैध कार्यों को लेकर प्रकाशन करने पर धमकियां मिलती हैं षड्यंत्र जान से मारने के रचे जाते हैं कुल मिलाकर आज व्यवस्था ऐसी है की लोकतंत्र के अन्य स्तंभ भी चौथे के खिलाफ हैं और उसे नेस्तनाबूत करने में लगे हुए हैं।
@पत्रकारों के प्रति खबर प्रकाशन के बाद अधिकारियों का विचार बदला लेने का क्यों होता है?
आजकल प्रायः देखा जाता है की किसी भी ऐसी खबर जो शासन प्रशासन को सचेत करने के उद्देश्य से जुड़ी हुई होती है के प्रकाशन के बाद अधिकारियों का विचार पत्रकार से बदला लेने की तरफ आकर्षित होता है जबकि अधिकारी कमियों को दूर कर खबर को बेअसर कर सकते हैं, लेकिन अधिकारी आजकल ऐसा नहीं करते है और पत्रकार से द्वेष रखते हुए उससे बदला लेने का अवसर तलाशने लगते हैं। वैसे पत्रकारों के खिलाफ अधिकारियों को कोई भी कानून कार्यवाही करना भी आसान है, क्योंकि पूरी व्यवस्था का ही वह संचालन करते हैं, जिसमे कानून व्यवस्था भी शामिल है और वह जब चाहे जैसे चाहे पत्रकार को कानूनी दांव पेंच में उलझा देते हैं और बदला लेकर ही मानते हैं।
@पत्रकार कभी भी अपने लिए खबर नहीं लिखते
खबरों का प्रकाशन पत्रकार कभी अपने लिए नहीं करते। पत्रकार समाज में व्यवस्था में घट रही घटनाओं को सभी के समाने लाने के लिए ही खबर प्रकाशित करते हैं। खबरों में पत्रकार अपने लिए अपने लाभ के लिए कुछ भी प्रकाशित नहीं करता है। व्यवस्था में सुधार की कैसी जरूरत है और क्या गलत समाज में घट रहा है व्यवस्था में घट रहा है यही खबर प्रकाशन में मुख्य होता है।
@कमी दिखाने पर पत्रकार प्रशासनिक अधिकारियों को दुश्मन क्यों हो जाते हैं?
आजकल शासन प्रशासन की कमियां दिखाने वाले समाचार प्रकाशित करना बड़ा मुस्किल हो गया है। कमियां यदि प्रकाशित हुईं तो अधिकारी उससे सिख लेने उन्हे दूर करने की बजाए पत्रकार को दुश्मन मान बैठते हैं और वह फिर पत्रकार को ठिकाने लगाने की जुगत में लग जाते हैं। कुल मिलाकर जिन अधिकारियों को लोगों के हित संवर्धन के लिए भेजा गया है वही लोगों के हित संबंधी मामलों में खबर प्रकाशित होते ही नाराज हो जाते है और हितों के संवर्धन की बजाए कमियों को दूर करने की बजाए वह पत्रकार से दुश्मनी भुनाने की जुगत लगाते हैं जिसमे वह सफल भी होते हैं।
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