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संपादकीय@देश का चौथा स्तंभ डगमगा रहा है,बचाए कौन?

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लेख BY रवि सिंह। ये बात बिल्कुल सही है कि मीडिया देश की ज़रुरत है, बिना इसके हम स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं कर सकते हैं, संपादक, मालिक और पत्रकार, सभी एक ढर्रे पर चल रहे हैं, सभी बदलाव की बात करते हैं, मगर कोई बदलना ही नहीं चाहता है, देश का स्वघोषित चौथा स्तंभ डगमगा रहा है, अपने विचारों से, अपने कर्तव्यों से बचा लो…अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है यह कहना गलत नहीं होगा क्योंकि पहले के तीन स्तंभ भी चौथे स्तंभ के लिए गंभीर नहीं है। उन्हें लगता है कि चौथे स्तंभ की जरूरत ही नहीं है?
हम सब इस देश के आम नागरिक हैं मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी पत्रकारिता क्षेत्र में कभी रुचि होगी पर अचानक समय के साथ रुचि बढ़ी और लोगों के लिए उनकी आवाज बनना अच्छा लगने लगा पर नहीं पता था कि उनकी आवाज बनना खुद के लिए कठिन हो जाएगा, आवाज भले ही हम दूसरे की बन रहे हैं पर समस्या खुद के लिए खड़ी हो रही है क्योंकि जिनके लिए आवाज बन रहे हूं वह उस आवाज को बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहे हैं, पत्रकारिता की कोई पढ़ाई नहीं की पर काम करते-करते अनुभव होता गया, पत्रकारिता क्या है उसका उद्देश्य क्या है यह काम करते-करते ही समझ आया, काम आप सभी के आशीर्वाद से काम भी कर रहा हूं, ये तो हमारा परिचय था, पिक्चर अभी बाकी है, 140 करोड़ की आबादी होने के कारण देश में कई समस्याएं हैं, जो कुंडली मार कर बैठी हुई हैं, इन सबसे निपटने के लिए सरकार प्रयास कर रही होगी, हम एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं, जहां हम अपनी पसंद की सरकार चुनते हैं, सरकार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की मदद से जनता के बीच में काम करती है, इन्हें देश का आधारभूत खंभा भी कहते हैं, हालांकि, समाज में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, वह जनता और सरकार के बीच एक पुलिया का काम करती है, इस कारण मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, समाज में मीडिया की भूमिका पर बात करने से पहले हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया क्या है? मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, जो टी.वी. शो हम देखते हैं, संगीत जो हम रेडियो पर सुनते हैं, पत्र एवं पत्रिकाएं जो हम रोज पढ़ते हैं, यह हमारे चारों ओर यह मौजूद होता है, तो निश्चित सी बात है इसका प्रभाव भी समाज के ऊपर पड़ेगा ही, लोकतंत्र के चार स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता हैं, स्वाभाविक-सी बात है कि जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया ख़राब हो जाये, तो वह अपनी आन-बान-शान गंवा देता है, मीडिया की महत्ता को समझाते हुए अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ”यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अख़बार और सरकार में से किसी एक को चुनना है, तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अख़बारों का अस्तित्व अवश्य रहे।”
समाचार पत्र राजनीतिज्ञों और अन्य सत्ताधारियों का सशक्त उपकरण बन गया है, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका मनमाना प्रयोग करते हैं, सभी अपने अधिकारों की सीमा लांघते हैं मगर क्यों?
हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है, याद किजिए वो दिन जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने के लिए एकमात्र साधन अख़बार ही था, विश्व में अमेरिका और कई पश्चिमी देश ऐसे हैं, जहां पत्रकारिता स्वतंत्र है, भारत में भी प्रेस की अपनी भूमिका निभा रही है, हालांकि, अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में प्रेस के लिए कोई अलग से कानून नहीं हैं, हिन्दुस्तान में एक आम नागरिक को जो अधिकार दिया गया है, वही अधिकार प्रेस को भी दिया गया है, आर्टिकल 19(1) (ए) के अनुसार, हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है, मीडिया को भी इसी दायरे में रखा गया है, हम आज जिस मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं, वो सरकार और मीडिया है, सरकार के बिना मीडिया अधूरी है, और मीडिया के बिना सरकार, देश की समस्याओं को अख़बार या टीवी के माध्यम से मीडिया सरकार तक अपनी बात पहुंचाती है, देखा जाए, तो प्रेस की भूमिका जनप्रतिनिधि की होती है, कई बार ये प्रतिनिधि सीमा को लांघ जाते हैं, नाजी नेताओं ने ठीक ही कहा है कि यदि झूठ को दस या बीस बार बोला जाए, तो वह सच बन जाता है, समाचार पत्रों के संदर्भ में यह कथन सही उतरता है, आज समाचार पत्र राजनीतिज्ञों और अन्य सत्ताधारियों का सशक्त उपकरण बन गया है, वे अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका मनमाना प्रयोग करते हैं, सभी अपने अधिकारों की सीमा लांघते हैं मगर क्यों? 
मीडिया का काम एक निगरानी कर्ता की तरह होता है
देश में सभी परियोजनाओं को जनता तक पहुंचाने का काम कार्यपालिका का होता है, विधायिका का काम जनता के लिए उन योजनाओं का बनाना होता है, देश में कानून-व्यवस्था और एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण के लिए न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, मीडिया का काम एक निगरानी की तरह होता है, कहीं भी गड़बड़ी होती है, उसे तुरंत प्रकाश में लाता है मिडिया, कभी-कभी न्यायपालिका भी सरकार के कामों पर कमेंट या सवाल उठाती है, जिसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं, विधायिका और कार्यपालिका तो एक-दूसरे के पूरक होते ही हैं, मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना, लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे!
पत्रकारिता ख़ुद से सवाल कर रही है कि मैं कौन हूं?
मीडिया के संबंध में कहा जाता हैं कि हिन्दुस्तान में मीडिया ने शुरुआत तो बचपन से की मगर अपनी जवानी नहीं देखी, अब उसका बुढ़ापा आ गया है पत्रकारिता ख़ुद से सवाल कर रही है कि मैं कौन हूं? टीआरपीकरण और सनसनीखेज होने के कारण ख़बरों में नमक-मिर्च लगाकर पेश करना हमारी आदत हो गई है, उसे चटखारेदार बनाने के प्रयासों में हम भटक जाते हैं, टीवी में ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है? आज प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में समाचार-पत्रों की प्रभावशीलता घटने लगी है, सामाजिक मुद्दों को उठाने की चिन्ता घट गई, देश आज आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन मीडिया आज मौन है, मीडिया ट्रायल एक गंभीर बीमारी है मीडिया ट्रायल का मतलब होता है जनता के समक्ष, ख़बरों पर अपना निर्णय देना, मीडिया वही कर भी रहा है, पत्रकारिता के लिए यह किसी बिमारी से कम नहीं है, किसी को आतंकवादी होने की शंका होने पर गिरफ़्तार किया जाता है, तो मीडिया उसे आतंकवादी घोषित कर देता है, किसी पर लड़की छेड़ने का आरोप लगा हो, तो मीडिया उसे बलात्कारी घोषित कर देता है, कोर्ट बाद में भले ही फैसला सुनाए, मगर मीडिया ने जो तय कर लिया वही सच है, बाद में मीडिया से माफ़ी की भी गुंजाइश ना रखें, इस तरह की प्रवृत्तियां मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती हैं।
किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो… आज के समय में अखबार निकालने वालों को तोप से उड़ाने के प्रयास से भी गुरेज नहीं
कभी अकबर इलाहाबादी ने कहा था  की जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो यह उन्होंने अखबार की ताकत बताने की लिए कहा था लेकिन आज अखबार निकालने वालों को तोप से उड़ाने से भी गुरेज नहीं किया जाता है। सच से इतना परहेज हो गया है की सच प्रकाशन के बाद पत्रकारों के प्रति अपराध बढ़ता जा रहा है अनैतिक अवैध कार्यों को लेकर प्रकाशन करने पर धमकियां मिलती हैं षड्यंत्र जान से मारने के रचे जाते हैं कुल मिलाकर आज व्यवस्था ऐसी है की लोकतंत्र के अन्य स्तंभ भी चौथे के खिलाफ हैं और उसे नेस्तनाबूत करने में लगे हुए हैं।


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