संपादकीय@सामाजिक मतदाताओं को साधने के चक्कर में राजनीतिक पार्टियां कई बार औंधेमुँह गिरते दिखी हैं

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राजनीति में अधिक जनसंख्या वाले समाज को साधना प्रथा बन चुकी है, ऐसा लगता है, लोकतंत्र में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं किसी समाज का प्रतिनिधित्व चुना जा रहा
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समाज का नहीं जनता का प्रतिनिधित्व चुना जाता है, पर इस समय चुनाव के समीकरण अलग ही लहर में बह रहे हैं
लोकतंत्र में जनता का प्रतिनिधित्व चुनने का प्रचलन खत्म होता जा रहा,जनता के जगह सामाजिक प्रतिनिधित्व चुना जा रहा है

कोरिया रवि सिंह। देश के आजाद होने के बाद से लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जनता का प्रतिनिधित्व चुना जाता रहा है, चाहे वह देश के लिए चुनाव हो या फिर राज्य के लिए, जो भी जनता के लिए जनता को सही लगा उसे उस बार जनता द्वारा चुना गया, शुरुआती दौर में जनता का प्रतिनिधित्व चुनने का नजरिया अलग था, उस समय दल का भी महत्व था और अब नजरिया अलग हो चुका है, पहले जब राजनीतिक पार्टियों कम थी, तो उसे समय चेहरा विशेष दल विशेष पर जनता विश्वास करती थी, फिर जनता उसी उम्मीदवार उसी दल पर भरोसा जताती थी और लोकतांत्रिक तरीके से  जनता प्रतिनिधि चुन लिया करती थी, फिर बीच में अलग ही दौर आया और कुछ राज्यों में धर्म व समाज का प्रतिनिधित्व करने वालों को जनता के ऊपर थोपा गया, उसे दौर में भी जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से अपने लिए प्रतिनिधि चुना और वह भी दौर गुजर गया, अब एक बार फिर से दौरा अलग हो चुका है और इस बार समाज विशेष पर चुनाव का प्रतिनिधित्व ज्यादा तेज हो चला है, जिस समाज की जनसंख्या ज्यादा उसी से उम्मीदवारी कराई जा रही है, और सभी राजनीतिक दल एक ही समाज से एक ही क्षेत्र में प्रत्याशी भी उतरना शुरू कर दिए, ऐसे में समाज भी बटता गया और समाज भी कई भागों में बांटता चला गया, सिर्फ उसका एक ही कारण था राजनीति के तहत राजनीतिक दलों द्वारा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए जातियों में बांटकर समाज से अपने लिए लाभ तलाशने उन्हें बांटना और समाज को तोड़ना वह भी सिर्फ जनता के प्रतिनिधित्व के लिए। जबकि निर्वाचन प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व तो जनता का होता है, समाज का प्रतिनिधित्व तो समाज अपने से चुन लेती है, पर इस समय क्षेत्र में जनता के ऊपर राजनीतिक पार्टियों अपनी ही मर्जी थोपने लगी हैं, पुराने चुनाव पर नजर डाला जाए तो वह अलग ही परिस्थितियां बया करती थीं और वर्तमान चुनाव इस समय अलग ही स्थितियां बयां कर रहीं हैं, 77 साल वाले आजाद देश में कई चुनाव देखे हैं लोगों ने, और लोकतांत्रिक तरीके से जनता के प्रतिनिधि को चुना गया है और देश व राज्य को अलग मुकाम पर लाया गया है, आजादी पाने के लिए संगठित हुआ देश आज फिर से अपने ही अंदर भीतर समाज में विभक्त होता जा रहा है टूटता जा रहा है और तोड़ने की वजह भी जाति धर्म व समाज के कारण बन रहा है, इस समय संख्या को बहुमूल्य देखा जाने लगा है। 
इस समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं बात हम करें छत्तीसगढ़ राज्य की तो यहां पर दो राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस प्रत्याशियों के मंथन में लगी हुई है मंथन करना इसलिए भी उचित हो गया है, क्योंकि दोनों राजनीतिक पार्टियां समाज के धमकी के दबाव में, जिस समाज की ज्यादा संख्या है उस समाज से लोग दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में प्रत्याशी बनने की इच्छा रखे हुए हैं और इच्छा पूरी करने के लिए अपनी संख्या को लेकर राष्ट्रीय पार्टियों पर दबाव भी बना रही हैं, वैसे समाज जातियों का इसमें दोष नहीं है दोष है तो राजनीतिक दलों का ही है, जिन्होंने खुद को सत्ता में स्थापित करने ऐसी प्रथा को हवा दिया जहां योग्यता क्षमता की जगह संख्या महत्वपूर्ण वह करती चली गईं और आज वह राजनीतिक दलों के लिए ही समस्या बन रही है, कई जगहों पर तो यह स्थितियां हैं कि एक ही समाज से एक ही जगह पर दोनों पार्टियों को प्रत्याशी उतारने पड़ते हैं और हो ना हो इस बार भी ऐसा देखने को मिल सकता है ऐसे में समाज भी उस तरफ जाने का प्रयास करता है जिस तरफ उसके समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति व्यवहार कुशल हो, उस समय वह अपने समाज के व्यक्ति का चरित्र देखता है और इसी समीकरण में राजनीतिक पार्टियां कई बार ओंधेमुंह भी गिर जाती हैं, कई बार ऐसा देखने को मिला जब बड़ी संख्या वाले समाज को पार्टियों ने प्रत्याशी बनाया और चुनाव में फिर भी उन्हें हारना पड़ा, क्योंकि दबाव में लिया गया फैसला हमेशा ही नुकसान देता है, जनता के ऊपर कभी भी किसी चीजों को थोपना नहीं चाहिए, जनता के प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति की कुशलता को देखना चाहिए, कि कौन व्यक्ति जनता का प्रतिनिधित्व कर सकता है, बाकि समाज का प्रतिनिधित्व चुनने का अधिकार समाज के पास सुरक्षित है, पर जनता का प्रतिनिधित्व जनता को ही चुनना चाहिए इसलिए समाज को देखकर नहीं जनता को देखकर उसके योग्य व्यक्ति को प्रत्याशी बनाना चाहिए जैसा कि आज तक होता भी आया है।
पिछले भाजपा ने साहू समाज से प्रदेश भर में दिए थे 14 टिकट,जीत मिली कुल 1, सीट पर,भाजपा का अनुभव प्रयोग समाज को लेकर पिछला अच्छा नहीं
विधानसभा चुनाव में भाजपा का साहू समाज को लेकर प्रदेश के चुनाव में पिछला अनुभव, भारतीय जनता पार्टी ने अन्य पिछड़ा वर्ग से साहू समाज पर भरोसा जताया था और इस समाज से 14 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा था लेकिन इनमें से 13 उम्मीदवार चुनाव हार गए हैं। छत्तीसगढ़ में 51 सीटें अनारक्षित हैं और इनमें से ज्यादातर सीटों पर अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों पर राज्य की राजनीतिक पार्टियां भरोसा करती हैं। अन्य पिछ़ड़ा वर्ग में साहू समाज के लोगों की संख्या लगभग 16 फीसदी है और वे यहां की राजनीति को प्रभावित करते हैं। साहू समाज के लोग ज्यादातर किसान हैं तथा कुछ व्यापार भी करते हैं भारतीय जनता पार्टी ने इस समाज के प्रभाव को देखते हुए साहू समाज के 14 उम्मीदवारों को टिकट दिया था। लेकिन इनमें से केवल धमतरी सीट पर रंजना दिपेंद्र साहू ने ही जीत हासिल की है,रंजना साहू ने इस सीट से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधायक गुरुमुख सिंह होरा को हराया है। बीजेपी ने अभनपुर सीट से वरिष्ठ नेता चंद्रशेखर साहू और शक्ति सीट से मेघाराम साहू के अलावा दो विधायकों आशोक साहू को कवर्धा सीट और तोखन साहू को लोरमी सीट से टिकट दिया था, लेकिन सभी को हार का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही बीजेपी ने कोटा सीट से काशीराम साहू, जांजगीर सीट से कैलाश साहू, खल्लारी सीट से मोनिका साहू, रायपुर ग्रामीण से नंद कुमार साहू, संजारी बालोद सीट से पवन साहू, गुंडरदेही सीट से दीपक ताराचंद साहू, पाटन सीट से मोतीलाल साहू, दुर्ग ग्रामीण सीट से जागेश्वर साहू और खुज्जी सीट से हीरेंद्र साहू को मैदान में उतारा था, लेकिन इन सभी को जनता ने नकार दिया। बीजेपी द्वारा बड़ी संख्या में साहू समाज को टिकट देने और हारने को लेकर छत्तीसगढ़ साहू संघ के तत्कालीन युवा प्रकोष्ठ के प्रदेश उपाध्यक्ष राकेश साहू ने कहा था  कि कांग्रेस का घोषणापत्र आकर्षक था। किसानों के लिए धान की खरीद पर 2500 रुपये समर्थन मूल्य, दो साल का बोनस, कर्ज माफ, बिजली बिल आधा, युवाओं को बेरोजगारी भत्ता जैसे मुददे ने लोगों को आकर्षित किया है। कांग्रेस की इन घोषणाओं के कारण परिवर्तन की एक लहर चल गई। वहीं युवा नेता साहू ने कहा था कि इस चुनाव में केवल साहू ही नहीं बल्कि सभी वर्ग के उम्मीदवार चुनाव हारे हैं जिनमें बड़े नेता भी शामिल हैं वह कहते हैं कि साहू समाज का किसी भी पार्टी के साथ मतभेद नहीं है हम राज्य का विकास चाहते हैं एक अन्य पदाधिकारी नाम नहीं छापने के शर्त पर कहा था कि दुर्ग ग्रामीण विधासभा सीट से लोकसभा सांसद ताम्रध्वज साहू को टिकट दिए जाने के बाद साहू समाज को उम्मीद थी कि कांग्रेस की जीत के बाद ताम्रध्वज साहू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहेंगे। इसलिए कांग्रेस को साहू समाज का समर्थन मिला। कांग्रेस के उम्मीदवार ताम्रध्वज साहू ने दुर्ग ग्रामीण सीट से बीजेपी के जागेश्वर साहू को हराया है। इस चुनाव में कांग्रेस ने साहू समाज से आठ उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा था जिनमें से पांच उम्मीदवार जीते हैं। इनमें शकुंतला साहू (कसडोल सीट), धनेंद्र साहू (अभनपुर सीट), ताम्रध्वज साहू (दुर्ग ग्रामीण सीट), दलेश्वर साहू (डोंगरगांव सीट) और चन्नी चंदू साहू (खुज्जी सीट) शामिल हैं, जबकि राजेंद्र साहू (बेलतरा सीट), चुन्नीलाल साहू (अकलतरा सीट) और लक्ष्मीकांता साहू (कुरूद सीट) चुनाव हार गए हैं।


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