बैकुण्ठपुर@क्या पैसे से जनाधार खरीदा जा सकता है?

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  • क्या खुद के जन्मदिवस पर भीड़ जुटाने से विधानसभा चुनाव में टिकट पाने का दरवाजा खुलता है?
  • क्या जनादेश साबित करने के लिए अपना पैसा खर्च कर अपना जन्म उत्सव मनाना सही?

रवि सिंह –
बैकुण्ठपुर 19 अगस्त 2023 (घटती-घटना)। इस समय की राजनीति पर बात की जाए तो सवाल कई खड़े होते हैं, क्या राजनीति अब सेवा नहीं सिर्फ निर्वाचित होकर वन टाइम इन्वेस्टमेंट हो गई है? क्योंकि अभी की स्थिति में कुछ ऐसा ही दिखने लगा है, एक बार पैसा खर्च कर जनप्रतिनिधि बनो और उसके बाद फिर पैसे की कोई कमी नहीं, सेवा वाली राजनीति खत्म होते दिख रही है और यह कहा जाए कि खत्म हो गई है तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि इस समय राजनीति में आना सिर्फ इन्वेस्टमेंट ही माना जाता है, जनाधार दिखाना जनाधार साबित करना यह भी अब फिजूलखर्ची ही समझ में आने लगी है, अपना कितना जनादेश है इसके लिए आपको कुछ ऐसे आयोजन करने होते हैं ताकि जनादेश पता चल सके पर क्या पहले की राजनीति में भी ऐसा ही किया जाता था? इस समय कोरिया जिले की राजनीति में जन्म उत्सव मना कर अपना जनादेश दिखाना आम हो गया है, लगातार नेता अपना जनादेश दिखाने के लिए अपने जन्म उत्सव या फिर शादी की सालगिरह ऐसे कार्यक्रमों का बड़ा आयोजन करते हैं और भीड़ को व्यवहार में बदल कर जनादेश दिखाते हैं।
अभिभाजित कोरिया जिले में कुछ ऐसा ही कांग्रेस भाजपा दोनों दलों के नेता करते दिखते हैं यहां तक की विधायकों व मंत्रियों का भी जन्म उत्सव मनाया जाता है, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का तो समर्थक अपना पैसा लगाकर बड़ी धूमधाम से उनका जन्म उत्सव मनाते हैं और अपनी निष्ठा उनके प्रति साबित करते हैं, वहीं जब वह चुनाव हार जाते हैं हारने के बाद कोई उन्हें पूछने भी नहीं जाता, ऐसे कई उदाहरण जिले में मौजूद है, वही जिन्हें जनप्रतिनिधि व विधायक बनना है अपना जनादेश दिखाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, जिसमें सबसे ज्यादा अपने जन्मदिवस पर अपना खर्चा कर जनादेश दिखाना आम है और इतनी भीड़ खुद जुटाते हैं ताकि इसकी रिपोर्टिंग ऊपर तक जाए जिसका फायदा उन्हें विधानसभा या लोकसभा के टिकट मिलने में हो। वर्तमान में ही भाजपा उपाध्यक्ष व पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष का भी जन्मदिन मनाया गया जगह-जगह उनका जन्मदिन मनाया गया। पर कार्यक्रम व भीड़ को देखकर यही कहा गया कि विधायक के दावेदार हैं और टिकट भी इन्हें चाहिए जिस वजह से ऊपर तक यह भीड़ दिखनी चाहिए यह प्रयास था, यह भी कहा जा रहा है कि इसमें पैसे भी खूब खर्चा हुए और खर्चा कर जनादेश बटोरा गया दिखावा किया गया।
पैसे से जनधार खरीदने का प्रयास क्यों?
लगातार यह एक परंपरा बनती जा रही है राजनीति के की और यह मान्य तथ्य भी होता जा रहा है की अब बिना खर्च किए बिना दिखावा किए बिना पूंजी लगाए कोई जनप्रतिनिधि नहीं बन सकता और यदि किसी की मंशा राजनीतिक क्षेत्र में जाने की है तो उसे सबसे पहले पूंजी लगाकर खुद का जनादेश साबित करना होता है जो चुनाव लड़ने के दौरान मतों में परिवर्तित होगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती,क्या पैसा लगाकर जनादेश खरीदना या दिखाना जायज है क्या यह उचित माना जा सकता है वहीं ऐसे मामलो में यह भी कहा जा सकता है की जब पैसे लगाकर कोई राजनीति में आने का प्रयास कर रहा है तो वह जन सेवा क्षेत्र विकास की भावना मन में कितना रखता होगा यह समझा जा सकता है।
क्या जनसंपर्क से जनादेश नहीं?
जिन्हे राजनीति में आकर जनता की सेवा करनी है जिन्हे यह लगता है की वह क्षेत्र का नेतृत्व कर सकते हैं वह जन संपर्क साथ ही जन समस्याओं का संकलन एवम उसके निराकरण का भरोसा देकर क्यों नहीं राजनीति में आना चाहते यह बड़ा सवाल है, क्या आज की परिस्थितियां देखकर और नेताओं के जनाधार साबित करने आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रम देखकर जो खर्चीले होते हैं यह मान लिया जाए की राजनीति अब एक व्यवसाय है और वही इसमें सफल हो सकता है जो पूंजी लगा सकता है जन संपर्क और बिना पूंजी का जनाधार अब मिलना मुश्किल है।
कई नेताओं के जनाधार दिखाने के तरीके ने खड़े किये कई सवाल
नेताओं जनप्रतिनिधि बनकर सेवा की भावना प्रदर्शित करने साथ ही ऐसी मंशा रखने वाले लोग यदि सही मायने में जनसेवा की भावना मन में रखते वह जनता के बीच ऐसे ही जाते उन्हे खुद के व्यवहार से अपनी ओर आकर्षित करते उन्हे विश्वास में लेते की वह उनके लिए एक बेहतर जनप्रतिनिधि हो सकते हैं और वह निश्चित ही जनसेवा की भावना से राजनीति में आना चाहते हैं वहीं यदि आज की या पिछले कुछ माह की जनप्रतिनिधियों की गतिविधियों साथ ही उनकी राजनीति में स्थान बनाने की मंशा और उसको लेकर किए गए आयोजनों पर नजर डाली जाए तो पाया जाएगा की कइयों ने बड़े बड़े आयोजन किए कहीं जन्मदिन मनाया गया, खुद का खुद के खर्चे से कहीं शादी की सालगिरह मनाई गई, कहीं पिकनिक हुआ कहीं भोग भंडारा भी किया गया जिससे जनता को नमक के कर्ज से लादा जा सके, कुल मिलाकर ऐसे आयोजन यह सवाल छोड़ गए की राजनीति में भाव सेवा की नहीं जनता का भाव तय करना होगा तभी राजनीति में सफलता संभव है अन्यथा नहीं।
प्रत्याशी बनने के बाद भी बिना प्रलोभन कोई नेता नहीं करता अपने लिए प्रचार,किसी को भी नहीं रहता खुद पर चुनाव जीतने का विश्वास
नेता अपना जन्मदिन मनाते हैं तब खर्च खुद का करते हैं और जो अपने दल को रिझाने और अपना जनाधार साबित करने के लिए वह करते हैं जिससे उन्हें उनके दल में किसी चुनाव में प्रत्याशी का प्रबल दावेदार माना जाए और वह प्रत्याशी बन जाएं वहीं यदि वह पार्टी को अपनी रिझा पाते हैं और उन्हे उम्मीदवार किसी चुनाव में बना भी दिया जाता है तब भी वह खर्च करके पैसा लगाकर ही चुनाव जीतने की युक्ति पर काम करते हैं उन्हे अपनी काबिलियत अपनी जनता के बीच ही की छवि का भरोसा नहीं होता और वह जनता की बोली तय करते हैं और चुनाव जीतने का प्रयास करते हैं। कहीं साड़ी बंटती है,कहीं बिछिया पायल चांदी की बंटती है कहीं साल और छतरी बंटती है मुर्गा और शराब का भी बंटवारा करने से वह पीछे नहीं हटते और तब यह सवाल उठता है की जब जनाधार वह पहले ही साबित कर किसी दल में प्रत्याशी बन चुके हैं तो फिर जन प्रलोभन की जरूरत ही क्या और क्यों इसकी आवश्यकता और तभी यह भी साबित हो जाता है की आयोजन कर जनाधार जो साबित किया जाता रहा है वह किराए का रहा है और उसे फिर मतों में परिवर्तित करने के लिए पुनः बोली लगाकर खरीदने की जरूरत पड़ती है जो होता दिखता है जब चुनाव होते हैं।


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