बैकुण्ठपुर@राजनीति में आपसी स्वीकार्यता आखिर क्यों हो रही खत्म,विपक्ष को दुश्मन मनाने का क्यों बढ़ रहा चलन?

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  • विरोध के नाम पर हर हद…हर सीमा… के पार जाकर व्यवहार करने से पीछे नहीं हट रहें हैं राजनीतिक व्यक्ति।
  • क्या आपसी विद्रोह को जन्म देना ही रह गया है राजनीतिक उद्देश्य,जनसेवा की बजाय जन आक्रोश उतपन्न करना ही बचा है केवल ध्येय।


-रवि सिंह-
बैकुण्ठपुर 30 सितम्बर 2022 (घटती-घटना)। राजनीति में आजकल पक्ष विपक्ष का आपसी व्यवहार देखकर यही लगता है कि आजकल केवल पक्ष विपक्ष का एक ही धेय रह गया है और वह है आपसी वैमनस्यता आपसी द्वेष का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन और अपने अनुयायियों के साथ दूसरे दल के अनुयायियों व मुखिया के प्रति आक्रामक होकर आक्रोश की स्थिति उतपन्न करना। लोक कल्याणकारी कार्यों जन सरोकारों से जुड़े विषयों से राजनीति करने वालों का आज कोई सरोकार नहीं रह गया है यह भी देखने को मिल रहा है कुल मिलाकर परस्पर एक दूसरे के प्रति कितना जहर उगला जा सके कितना विरोध और विद्रोह उतपन्न किया जा सके राजनीति का नया स्वरूप ऐसा ही देखने को मिल रहा है। आज यह कहीं देखने को मिल रहा है कि राजनीति में सत्ता पर काबिज किसी दल के किसी उत्कृष्ट कार्य का विपक्ष बड़ाई करता नजर आये और उसको बेहतर बताते हुए सुना जाए। हर कार्य की आलोचना और हर बेहतर कार्य को जनता के बीच जनता के लिए एक आक्रोश स्वरूप में लेकर जाना ही आज की राजनीति का प्रमुख व्यवहार राजनीतिक लोगों का रह गया है जो देखने को मिल रहा है।
विरोध खासकर एक तरह का राजनीतिक व्यवहार हो गया है
देश के लिए देश की सत्ताधारी सरकार द्वारा लिया गया कोई निर्णय हो या प्रदेश के लिए प्रदेश के हिसाब से लिया गया कोई उन्नति से सम्बद्ध रखने वाला निर्णय हो दोनों का ही परस्पर विरोध देखने को मिलता है भले ही निर्णय या लागू योजना कितनी ही बेहतर क्यों न हो और क्यों न उससे देश और प्रदेश की उन्नति सीधे तौर पर जुड़ी हो, प्रत्येक का विरोध विपक्ष करता ही नजर आता है भले ही ऐसी किसी योजना और घोषणा से वह खुद क्यों न लाभान्वित होता हो। देश के लिए गए वैश्विक परिदृश्य के हिसाब से लिये गए निर्णय जिसमे देश की सक्षमता देश की सुदृढ़ता का ही कोई निर्णय क्यों न हो विरोध खासकर एक तरह का उसके प्रति आक्रोश उतपन्न करना आज आम राजनीतिक व्यवहार हो गया है और इसके लाभ हानि से भी विरोध करने वालो को कोई लेना देना नहीं होता यह स्पस्ट नजर भी आता है।
काबिज सरकारों के निर्णय का विरोध करते समय विपक्ष भूल जाता है कि क्षवि कहीं न कहीं देश व प्रदेश की भी धूमिल होती है
आज देश हो या प्रदेश राजनीतिक द्वेष और वैमनस्यता के कारण दोनों ही जगह सत्ता पर काबिज सरकारों के निर्णय का विरोध करते समय विपक्ष यह भी भूल जाता है कि इसे क्षवि कहीं न कहीं देश और प्रदेश की भी धूमिल होती है और देश के मामले में वैश्विक स्तर पर देश की क्षवि धूमिल होती है और देश की अखंडता तक पर प्रश्न खड़ा हो जाता है। राजनीति में आजकल सामान्य व्यवहार एक ही है और वह है एक विचारधारा का प्रसार करना और प्रसार के दौरान व्यवहार में किसी भी सिद्धांत या किसी मूल तत्व जिसमे देश या प्रदेश की अखंडता उसकी सुरक्षा या उसकी अस्मिता का प्रश्न जो शामिल किया जा सकता है, उसका समावेश न करना कुल मिलाकर विरोध में विपक्ष की भूमिका का ऐसा निर्वहन करना राजनीति का मुख्य व्यवहार हो गया है और विरोध भी ऐसा जिसमे ऐसी विचारधारा का प्रसार जहां उससे जुड़े ही सत्य और सही राह पर हैं वहीं दूसरे विचारधारा से जुड़े तो गलत।
पहले और आज की तुलना में अंतर केवल इतना है कि पहले देश प्रदेश की अखंडता व उसकी अस्मिता से जुड़े विषयों पर सभी दल एकसाथ हुआ करते थे
राजनीति में एक निश्चित विचारधारा के आधार पर पहले भी व्यवहार होता आया है लेकिन पहले और आज की तुलना में अंतर केवल इतना है कि पहले देश प्रदेश की अखंडता साथ ही उसकी अस्मिता से जुड़े विषयों पर सभी दल एकसाथ हुआ करते थे और आज ऐसा नहीं है। आज प्रत्येक राजनीतिक दल एक अलग विचारधारा अपने साथ जुड़े लोगों में प्रवेशित कराना चाहती है और एक तरह से उसका प्रयास रहता है कि राजनीतिक दल से जुड़ने वाले सही गलत भूलकर केवल उन्हीं विषयों पर सच मानकर चलना शुरू करें जो दल द्वारा बताया जाए या प्रसारित किया जाए। प्रतिदिन सोशल मीडिया पर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करते राजनीतिक दल के लोगों के बयानों को पढ़कर भी समझा जा सकता है कि आज समाधान किसी विषय पर कोई सरकार यदि निकाले तो उससे असन्तुष्ट होने वालों की संख्या ज्यादा हो जिससे अगली बार उस दल को सरकार बनाने का मौका मिल सके जो आज विपक्ष में है वहीं एक दूसरे पर केवल शब्द तीर के सहारे ही आजकल राजनीति नहीं हो रही है मौका मिलने पर आपसी प्रत्यक्ष प्रहार कर भी एक दूसरे को कमजोर साबित करने का चलन बढ़ा है जो आने वाले समय के लिए राजनीति करने वालों के लिए कहीं से सही नहीं कहा जा सकता यदि ऐसा व्यवहार इसी तरह व्यवहार में शामिल होता रहा। तो राजनीति में आपसी स्वीकार्यता आखिर कहां से शुरू होगा और कब इसका चलन व्यवहार में पूर्व की तरह आएगा यह तो नहीं बताया जा सकता लेकिन जो कुछ भी वर्तमान राजनीति में जारी है वह देश और प्रदेश के हिसाब से बिल्कुल सही नहीं है यह जरूर कहा जा सकता है। राजनीति में एक और चीज जो लगातार देखने को मिल रही है वह यह कि सत्ता हथियाने तक ही राजनीतिक दल विचारधारा के सहारे होते हैं और अनुयायियों की फौज बनाते हैं जब उन्हें सत्ता मिल जाती है वह सत्ता के नशे में चूर हो जाते हैं और फिर मुड़कर सिद्धांतो की बात तभी करते हैं जब चुनाव नजदीक होता है और सत्ता की लालसा उनपर हावी होती है।


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