नई दिल्ली@सुप्रीम कोर्ट की बेहद अहम टिप्पणी

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लिव-इन रिलेशनशिप और समलैगिक रिश्ते भी परिवार
नई दिल्ली, 29 अगस्त 2022।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक सबध घरेलू, अविवाहित सहजीवन या समलैगिक रिश्ते के रूप मे भी हो सकते है। साथ ही अदालत ने उल्लेख किया कि एक इकाई के तौर पर परिवार की ‘असामान्य’ अभिव्यक्ति उतनी ही वास्तविक है जितनी कि परिवार को लेकर पारपरिक व्यवस्था। यह भी कानून के तहत सुरक्षा का हकदार है। कोर्ट ने कहा कि कानून और समाज दोनो मे परिवार की अवधारणा की प्रमुख समझ यह है कि’ इसमे एक मा और एक पिता (जो सबध समय के साथ स्थिर रहते है) और उनके बच्चो के साथ एक एकल, अपरिवर्तनीय इकाई होती है।
जस्टिस डी वाई चद्रचूड़ और जस्टिस ए एस बोपन्ना की पीठ ने एक आदेश मे कहा, ‘यह धारणा दोनो की उपेक्षा करती है, कई परिस्थितिया जो किसी के पारिवारिक ढाचे मे बदलाव ला सकती है। यह तथ्य कि कई परिवार इस अपेक्षा के अनुरूप नही है। पारिवारिक सबध घरेलू, अविवाहित सहजीवन या समलैगिक सबधो का रूप ले सकते है।’ एससी की टिप्पणिया अहम है। 2018 मे समलैगिकता को शीर्ष अदालत की ओर से अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया था। इसके बाद से ही कार्यकर्ता एलजीबीटी के लोगो के विवाह और सिविल यूनियन को मान्यता देने के साथ-साथ लिव-इन जोड़ो को गोद लेने की अनुमति देने के मुद्दे को उठा रहे है।
शीर्ष अदालत ने एक फैसले मे यह टिप्पणी की कि एक कामकाजी महिला को उसके जैविक बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश के वैधानिक अधिकार से केवल इसलिए वचित नही किया जा सकता है, क्योकि उसके पति की पिछली शादी से दो बच्चे है और उसने उनमे से एक की देखभाल के लिए छुट्टी का लाभ उठाया था। न्यायालय ने कहा है कि कई कारणो से एकल माता-पिता का परिवार हो सकता है। यह स्थिति पति या पत्नी मे से किसी की मृत्यु हो जाने, उनके अलग-अलग रहने या तलाक लेने के कारण हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘इसी तरह बच्चो के अभिभावक और देखभाल करने वाले (जो परपरागत रूप से ‘मा’ और ‘पिता’ की भूमिका निभाते है) पुनर्विवाह, गोद लेने या दाक के साथ बदल सकते है। प्रेम और परिवारो की ये अभिव्यक्तिया विशिष्ट नही हो सकती है, लेकिन वे अपनी पारपरिक व्यवस्था की तरह ही वास्तविक है। परिवार इकाई की ऐसी असामान्य अभिव्यक्तिया न केवल कानून के तहत सुरक्षा के लिए बल्कि सामाजिक कल्याण कानून के तहत उपलध लाभो के लिए भी समान रूप से योग्य है।
मातृत्व अवकाश को लेकर 1972 के नियमो का हवाला
पीठ की तरफ से फैसला लिखने वाले जस्टिस चद्रचूड़ ने कहा कि जब तक वर्तमान मामले मे उद्देश्यपूर्ण व्याख्या नही अपनाई जाती, तब तक मातृत्व अवकाश देने का उद्देश्य और मशा विफल हो जाएगी। अदालत ने कहा, ‘1972 के नियमो के तहत मातृत्व अवकाश देने का उद्देश्य महिलाओ को कार्यस्थल पर बने रहने मे सुविधा प्रदान करना है। इस तरह के प्रावधानो के लिए यह एक कठोर वास्तविकता है कि अगर उन्हे छुट्टी और अन्य सुविधाए नही दी जाती है तो कई महिलाए सामाजिक परिस्थितियो के मद्देनजर बच्चे के जन्म पर काम छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएगी।’
पीठ ने कहा कि कोई भी नियोक्ता बच्चे के जन्म को रोजगार के उद्देश्य से अलग नही मान सकता है और बच्चे के जन्म को रोजगार के सदर्भ मे जीवन की एक प्राकृतिक घटना के रूप मे माना जाना चाहिए। इसलिए, मातृत्व अवकाश के प्रावधानो को उस परिप्रेक्ष्य मे माना जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले के तथ्यो से सकेत मिलता है कि अपीलकर्ता (पेशे से नर्स) के पति की पहले भी शादी हुई थी, जो उसकी पत्नी की मृत्यु के परिणामस्वरूप समाप्त हो गया था, जिसके बाद उसने महिला शादी की।
पीठ ने कहा, ‘तथ्य यह है कि अपीलकर्ता के पति की पहली शादी से दो बच्चे थे, इसलिए अपीलकर्ता अपने एकमात्र जैविक बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश का लाभ उठाने की हकदार नही होगी। फैक्ट यह है कि उसे पहले की शादी से अपने जीवनसाथी से पैदा हुए दो जैविक बच्चो के सबध मे बाल देखभाल के लिए छुट्टी दी गई थी, यह एक ऐसा मामला हो सकता है जिस पर सबधित समय पर अधिकारियो की ओर से उदार रुख अपनाया गया था। वर्तमान मामले के तथ्य भी सकेत देते है कि अपीलकर्ता के परिवार की सरचना तब बदल गई, जब उसने अपनी पिछली शादी से अपने पति के जैविक बच्चो के सबध मे अभिभावक की भूमिका निभाई।’


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