कोरबा@कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी

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खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर

कोरबा, 06 मार्च 2022(घटती-घटना)। आधा ढंका बदन, छोटा कद, हाथ में तीर-धनुष लिये वनों में कंद मूल की तलाश… पहाड़ी कोरवा जनजाति का नाम सुनते ही दिमाग में अब भी यही तस्वीर उभरती है. लेकिन यह सूरत अब बदल रही है. कोरबा जिले में पहाड़ी कोरवा समुदाय से आने वाली एक ग्रेजुएट लडक़ी ममता ने अपने जनजातीय समुदाय की यह सूरत बदलने की ठानी है.ढ्ढ छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर आंछिमार गांव है. यहां रहने वाली ममता पहाड़ी कोरवा समुदाय की पहली ग्रेजुएट है. ममता बायो विषय से बीएससी करने के बाद अपने समुदाय की तस्वीर बदल रही है. गांव आंछिमार में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दर्जा प्राप्त विशेष पिछड़ी जनजाति पहाड़ी कोरवा समुदाय के 30 से 40 परिवार रहते हैं. वे यहां के मूल निवासी हैं. गांव आंछिमार पहाड़ी कोरवाओं की उन पारंपरिक बस्तियों से काफी अलग है, जिसे वनवासी और पिछड़ा हुआ माना जाता है. गांव आंछिमार में पहाड़ी कोरवा महिलाओं के 12 समूह बनाए गए हैं. जिसमें 40 से ज्यादा महिलाएं काम कर रही हैं. आजीविका मिशन के तहत बिहान योजना के उत्थान कार्यक्रम द्वारा समूह का गठन किया गया है. सभी समूह को प्रेरित करने का काम ममता ने अपने कंधों पर ले लिया है. समूह से जुडक़र महिलाएं अब अपने पैरों पर खड़ी हैं वह खेती-किसानी के काम से मुनाफा कमाने की ओर अग्रसर हैं.कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर कोरबा विकासखंड के अंतर्गत आने वाले करूमौहा पंचायत के गांव आंछिमार में करीब 3 एकड़ क्षेत्र में महिलाएं मूंगफली की खेती कर रही हैं. मूंगफली के साथ ही बरबट्टी और परवल जैसी सब्जियों की खेती भी महिलाओं ने की है. अब महिलाओं को फसल तैयार होने का इंतजार है. गांव में पहाड़ी कोरवाओं का मूल निवास है, जहां वह छिटपुट खेती किया करते थे. लेकिन इस वर्ष महिला समूहों के गठन के बाद उन्होंने संगठित तौर पर सामूहिक खेती की है. जिसमें ममता का बड़ा योगदान है. मूंगफली उत्पादन के लिए महिला समूह को सरकारी मदद भी मिली है. समूह की महिलाओं को उम्मीद है कि जब उनकी फसल तैयार होगी, तब लगभग 15 क्विंटल मूंगफली की पैदावार वह ले सकेंगी. इससे उन्हें अच्छा मुनाफा होगा ढ्ढ समूह की महिला सदस्य वृद्ध इतवारा बाई कहती हैं कि पहाड़ी कोरवाओं का जीवन आसान नहीं था. हम पहाड़ के ऊपर रहते थे और भुखमरी का वो दौर भी देखा है, जब एक टाइम ही खाने को मिलता था और दूसरे टाइम भूखे पेट सो जाया करते थे. हमारे समुदाय के कई लोग भुखमरी से भी मर चुके हैं. जैसे-तैसे हमारी जान बची है. आज हमने यहां तक का सफर तय किया है. गांव की बेटी ममता पढ़ लिख गई है. हम अपनी मेहनत से खेती-किसानी करके आजीविका का प्रबंध कर रहे हैं. लेकिन हमारे पक्के आवास का सपना अब भी अधूरा है.


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